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Скачать или смотреть राणा जी तेरी एक ना मानूंगी रोज सत्संग मे

  • KSNA70
  • 2025-06-03
  • 112
राणा जी तेरी एक ना मानूंगी रोज सत्संग मे
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Описание к видео राणा जी तेरी एक ना मानूंगी रोज सत्संग मे

राणा जी तेरी एक ना मानूंगी रोज सत्संग मे
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यह पद मीरा बाई-परंपरा के लोकभजन-शैली में रचा गया है। इसमें एक ही मुखड़ा (रैफ्रेन) ‘राणा जी, तेरी एक न मानूँगी, रोज सत्संग में जाऊँगी’ बार-बार लौटकर आता है, और हर अंतरे में मीरा के सामने आने वाली सामाजिक बाधाओं का चित्रण व उनका दृढ़-संकल्प दिखाई देता है।


1. रूपक (अlegory) और पात्र

पात्र/संकेत प्रतीक अर्थ

राणा जी सांसारिक सत्ता—पति, समाज अथवा राजसत्ता, जो भक्त को रोकती-सी लगती है।
मीरा समर्पित आत्मा/भक्त, जिसकी सर्वोच्च प्राथमिकता भगवद्भक्ति है।
ससुर, जेठ, देवर क्रमशः पारिवारिक/सामाजिक बंधन-प्रतिबंध, जिनसे सहमति लेना आवश्यक माना जाता है।
सत्संग भगवान का सान्निध्य, साधु-संग अथवा किसी भी रूप में आध्यात्मिक मिलन।


2. कथा-धारा

1. मुखड़ा
मीरा दृढ़संकल्पित स्वर में कहती हैं कि वे राणा जी की ‘एक’ भी बात न मानेंगी, अर्थात् कोई भी प्रतिबंध स्वीकार नहीं करेंगी; उनका लक्ष्य प्रतिदिन सत्संग जाना है।


2. पहला अंतरा

दर्शन-परिदृश्य: ब्रह्मा, विष्णु, महादेव के साक्षात दर्शन का लोभ।

बाधा: ससुर का सामना।

उत्तर: ‘ससुर से पल्ला कर लूँगी’ – यानी विनम्रता, साहस अथवा तर्क से मार्ग बना लूँगी।



3. दूसरा अंतरा

दर्शन: श्रीराम, हनुमान, सीता के दर्शन।

बाधा: जेठ मिलेंगे।

उत्तर: ‘जेठ से आज्ञा ले लूँगी’ – सत्संग के लिए अनुमति प्राप्त कर लूँगी; श्रेयस्कर कार्य के लिए वचन-बल।



4. तीसरा अंतरा

दर्शन: राधा, रुक्मिणी तथा कृष्ण के दर्शन।

बाधा: देवर मिलेंगे।

उत्तर: ‘देवर को संग ले जाऊँगी’ – न सिर्फ बाधा न मानकर, बल्कि साथ ही जोड़कर भक्ति-मार्ग पर चलना।



3. भावार्थ

अडिग भक्ति-संकल्प: कोई भी सांसारिक शक्ति (राणा जी) या पारिवारिक ज़िम्मेदारी मीरा के ईश्वर-प्रेम पर अंकुश नहीं लगा सकती।

सामाजिक संवाद: हर अंतरे में मीरा पारंपरिक मर्यादाओं का सम्मान करते हुए भी परम साध्य को प्राथमिकता देती हैं।

स्त्री-स्वातंत्र्य: यह पद दर्शाता है कि आध्यात्मिक अधिकार स्त्री-पुरुष सबसे ऊपर है; मीरा साहस व विनम्रता दोनों के साथ पितृ-सत्तात्मक संरचना को चुनौती देती हैं।

सत्संग की महिमा: सत्संग को ही भगवत् दर्शन का द्वार माना गया है; देव-दर्शन रूपकात्मक हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि साधु-संग में स्वयं ईश्वर का वास है।



4. काव्य-सौंदर्य

पुनरावृत्ति (Refrain): मुखड़ा की आवृत्ति से संकल्प की दृढ़ता और गीतात्मक लय दोनों प्रबल होते हैं।

सरल-लोकभाषा: राजस्थानी/ढूंढाड़ी छटा के शब्द (राणा, मीरा री) पद को लोकगायन हेतु सहज बनाते हैं।

नाटकीय प्रश्न-उत्तर: ‘मीरा री तुम कैसे जाओगी?’—प्रश्न, और मीरा का उत्तर—गीत को नाट्य-रस देते हैं।

चित्रात्मकता: ‘ब्रह्मा-विष्णु-महादेव’, ‘राम-हनुमान-सिया’, ‘राधा-रुक्मिणी-कन्हैया’—अनुस्यूत देवमाला से भक्ति-रस सरस बनता है।



5. सांस्कृतिक प्रासंगिकता

यह भजन आज भी मंदिर-सत्संगों में, कीर्तन मंडलियों में बड़े भाव से गाया जाता है। इसमें

समाज-सम्मुख नैतिक सन्देश: आध्यात्मिक पथ पर निर्भय रहो।

गृहस्थ-धर्म और भक्ति का संतुलन: आवश्यक दायित्व निभाते हुए भी परम सच्चाई का अनुसंधान।

मीरा-परंपरा का जीवंत संचार: यह गीत भक्तिकालीन स्त्री-काव्य की परंपरा को साधारण जन तक पहुँचाता है।


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