जानिए छोटे साहिबजादों ( जोरावर सिंह और फतेह सिंह ) की कुर्बानी की कहानी जब आसमां और जमीं भी रो पड़ी

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“निक्कियां जिंदां, वड्डा साका” ये लफ्ज सिख्स धर्म में लोग गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहादत को याद कर जरूर बयां करते हैं. आज हम आपको छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह की कुर्बानी की कहानी के बारे में बताने जा रहे हैं जब आसमां और जमीं तक भी रो पड़ी थी. उनकी उन कुर्बानियों को आज भी बहुत गर्व से याद किया जाता है, तो आइए बताते हैं.

जुदाई के मंजर से ये किस्सा शुरू हुआ जब सरसा नदी पर सिखों के 10वें गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी का परिवार एक-दूसरे से जुदा हो गया. जहां एक तरफ गुरु जी के साथ साहिबजादे चल दिए तो वहीं माता गुजरी के साथ छोटे साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतेह सिंह जी चल दिए. इस दौरान इनके साथ न तो कोई सैनिक गया और न ही फिर से पूरे परिवार की मिलने की कोई उम्मीद रह गई थी.

जब माता गुजरी जी शाहेबजादों के साथ एक नए ठिकाने की ओर जाने के लिए निकल पड़ी तब उन्हें रास्ते में ही गंगू नौकर मिला और उनसे आग्रह करने लगा कि वो सभी उनके साथ उनके घर चले और वहीं रहें. गंगू ने उन्हें उनके परिवार से मिलवाने का भरोसा दिलाते हुए कहा कि वो सभी परिवार के मिल जाने तक उसके घर में रहें. जिसके बाद माता गुजरी जी अपने दोनों साहिबजादों के साथ गंगू के घर तो चली गई, लेकिन वो इस बात से अंजान थे कि अगले ही पल उनके साथ क्या होने वाला है.

दरअसल लालत के कारण गंगू ने माता और साहिबजादों के साथ धोखा किया. आपको बता दें कि वजीर खां ने गंगू को सोने के मोहरे का लालच दिया. जिसके चलते गूंग ने वजीर खां को इस बात की जानकारी दे दी कि माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे उसके घर ही रुके हुए हैं. जानकारी मिलते ही वजीर खां ने अपने सैनिकों को गंग के घर भेजा, जिन्होंने माता गुजरी जी और 7 साल के बाबा जोरावर सिंह जी और 5 साल के बाबा फतेह सिंह जी को गिरफ्तार कर लिया. फिर क्या था वजीर खां ने तीनों पर खूब कहर बरपाए. इस दौरान उन्हें पूस की ठंडी रात में भी ठंडे बुर्ज में रखा गया. इतना ही ठंड से बचने हेतु उन्हें एक कपड़े का टुकड़ा तक न दिया.

ठंडी की उस कड़कड़ाती ठंड में ठिठुरने के बावजूद भी सुबह को माता गुजरी जी और साहिबजादे टूटे नहीं बल्कि उनके इरादे और भी बुलंद हो गए थे. वजीर खां के सामने दोनों साहिबजादों को लाया गया और वजीर खां की सभा में लोगों की भीड़ में दोनों साहिबजादों से कहा गया कि वो इस्लाम धर्म कबूल कर लें. कहा जाता है कि सभा में पहुंचते ही छोटे साहिबजादों ने बिना किसी से डरे जोरों-शोरों से “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” का जयकारा लगाना शुरू कर दिया.

इन छोटे बच्चों के आंखों में डर की जगह हिम्मत दिखाई देती थी ये काफी दृढ़ और साहसी थे. इस तरह से साहिबजादों को देखकर लोग दंग रह गए क्योंकि जब वजीर खां मौजूद हो और कोई उनके सामने बोलने की हिमाकत कर जाए तो ऐसा होना मुमकीन न था, लेकिन गुरु जी की नन्हीं संतानों ने बिना डरे ऐसा करके दिखा दिया. इस दौरान सभा में मौजूद मुलाजिम ने साहिबजादों को आदेश देते हुए कहा कि वो वजीर खां के समक्ष सिर झुकाएं और सलामी दें. जिसके बाद साहिबजादों ने मुलाजिम को जैसा जवाब दिया उसे सुनकर सभी हैरात में रह गए और सबके सब ने चुप्पी साध ली.

हिम्मतदार साहिबजादों ने सिर ऊंचा कर जवाब देते हुए कहा कि “हम अकाल पुरख और अपने गुरु पिता के सिवा किसी के सामने सिर नहीं झुकाएंगे. हम अपने दादा की कुर्बानी को बर्बाद न होने देंगे. अगर हमने किसी के भी आगे सिर झुकाया तो अपने दादा को क्या जवाब देंगे. जो धर्म के लिए सिर तक कटवाने को तैयार थे लेकिन झुकाने को नहीं.”

दोनों साहिबजादों को वजीर खां ने इस्लाम कबूल करने के हेतु बहुत डराया-धमकाया, इतना ही नहीं प्यार से भी बात की लेकिन अपनी बात पड़ अड़े दोनों साहिबजादे किसी भी तरह से राजी न हुए और अपने फैसले से डिगे नहीं.

अब वो वक्त आ गया जब सिख धर्म के इतिहास को गर्व से भर देने वाला था. इसके साथ ही अपने कौम के लिए जान कुर्बान कर देने का एक ऐसा उदाहरण पेश कर देने वाला था जिसे सदियों तक याद रखा जाएगा. अपने फैसले पर अटल रहे दोनों साहिबजादों को वजीर खां ने जिंदा ही दीवार में चुनवा दिया. कहा जाता है कि जब इन्हें दीवार में चुनवाया जाने लगा तो दोनों ने “जपुजी साहिब” का पाठ शुरू कर दिया और तो और दीवार में पूरी तरह से बंद होने के बाद भी “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” जयकारा लगाने की आवाज आती रही.

ऐसा भी कहा जाता है कि बंद दीवार को वजीर खां ने थोड़ी देर बाद तुड़वाया था तब तक भी दोनों साहिबजादे जिंदा थे, उनकी सांसे चल रही थी लेकिन फिर भी मुगल मुलाजिमों ने कहर बरपाना नहीं छोड़ा और दोनों की जान ले ली. वहीं, दूसरी ओर दोनों साहिबजादों की शहीदी की खबर जब माता गुजरी जी के पास पहुंची तो उन्होंने अकाल पुरख को इस शहादत के लिए शुक्रिया कर अपने प्राण को त्याग दिया. हर किसी के लिए इस कुर्बानी ने एक सबक पेश किया कि उम्र कितनी भी हो लेकिन हौसले बुलंद होने चाहिए और कौम के लिए मरते दम तक निष्ठा बनाए रखनी चाहिए.

Know the story of sacrifice of younger Sahibzadas (Zorawar Singh and Fateh Singh) when the sky and the land also wept....

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