नौलि शब्द की व्युत्पत्ति नल या नली शब्द से हुई है, यह शरीर की शिराओं या स्नायुओं को दर्शाता है। गुदा के समीप उदर की पेशियों के लिए भी संस्कृत के नल शब्द का उपयोग होता है। नौलि को लौलिकी कर्म भी कहा जाता है। लौलिकी शब्द की व्युत्पत्ति लोल से हुई है, जिसका अर्थ होता है, चंचल या 'इधर-उधर झूलना', जो कि इस अभ्यास में किया जाता है। यह अभ्यास सम्पूर्ण उदर को उत्तेजित, आलोड़ित और विलोड़ित करता है। उदर से सम्बन्धित पेशियों एवं स्नायुओं का भी मन्थन होता है।
नौलि पेशियों, स्नायुओं, आँतों, प्रजनन, मूत्र एवं उत्सर्जक अंगों सहित सम्पूर्ण उदर-प्रदेश की मालिश और पोषण करती है। यह शरीर में ताप उत्पन्न करती है और भूख, पाचन, स्वांगीकरण, अवशोषण एवं उत्सर्जन क्रिया को उद्दीप्त करती है। यह अन्तःस्रावी प्रणाली के अधिवृक्क घटकों में सन्तुलन लाने में सहायक होती है।
यह अभ्यास कब्ज, अपच, तन्त्रिका अतिसार, अम्लता, उदर वायु, अवसाद, हार्मोन स्राव में असन्तुलन, यौन एवं मूत्र रोगों, मधुमेह, शक्तिहीनता एवं भावनात्मक असंतुलन को दूर करता है। नौलि मणिपुर चक्र को उद्दीप्त और शुद्ध करती है, जो कि प्राण का भण्डार है। यह शरीर में ऊर्जा के प्रवाह में सामंजस्य लाकर मानसिक स्पष्टता एवं मानसिक शक्ति को बढ़ाती है।
समय-नौलि का अभ्यास आमाशय के बिल्कुल खाली होने पर, भोजन के कम-से-कम 5-6 घण्टे बाद ही करना चाहिए। सर्वोत्तम समय प्रात:काल है, जिस समय आपने कुछ खाया-पीया न हो।
अवधि - प्रारम्भ में 5 चक्र मध्यम नौलि करें और फिर उसे 10 चक्र तक ले जायें। वाम और दक्षिण नौलियों का अभ्यास एक साथ करना चाहिए, प्रत्येक नौलि का 5 से 10 बार अभ्यास करें।
सावधानियाँ-नौलि का अभ्यास कुशल मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। यदि नौलि के अभ्यास के दौरान पेट में दर्द का अनुभव हो, तो अभ्यास तुरन्त बन्द कर दें। फिर अभ्यास तब प्रारम्भ करें जब पीड़ा मिट जाय या दूसरे दिन करें।
सीमायें- जो लोग हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, हर्निया, पथरी, तीव्र पेप्टिक अल्सर से पीड़ित हों या जिनके उदर की हाल ही में शल्य-क्रिया हुई हो, उन्हें नौलि करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। गर्भवती स्त्रियों को नौलि नहीं करनी चाहिए।
नौलि का अभ्यास प्रारम्भ करने के पूर्व अग्निसार-क्रिया और उड्डियान -बन्ध में दक्षता प्राप्त कर लेनी चाहिए। जब खड़े होकर नौलि का अभ्यास करने में दक्षता प्राप्त हो जाए, सिद्धासन / सिद्धयोनि आसन में इसका अभ्यास करना चाहिए।
आरोग्यवान भवतु।।
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