|UTSAHI IMPERSONAL ENERGY|ब्रह्मज्ञान किसको होता है?ब्रह्मज्ञान का क्या फल है|जड़-चेतन ग्रंथि क्याहै|

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संसार में अनेकों तरह के व्यक्ति पाए जाते हैं. मुख्यतया इनको 5 श्रेणियों में बाटकर देखा जाता है. 1- मूढ़ व्यक्ति- ऐसा व्यक्ति मात्र संसार के विषयों/पदार्थों के भोग और संग्रह में व्यस्त रहता है. इनकी दिनचर्या और चिंतन के विषय केवल भोग और संग्रह ही होते हैं.धन, मकान, जमीन, संपत्ति, परिवार, पद, प्रतिष्ठा, मान - सम्मान, रिश्ते आदि की प्राप्ति और विकास ही उसका लक्ष्य रहता है. सांसारिक विषयों के आगे वह कभी सोचता ही नहीं. उसके जीवन का लक्ष्य मात्र जन्म लेना, बड़े होना, संतानोत्पत्ति और बूढ़े होकर मर जाना ही होता है. अध्यात्म की ओर कोई रूचि नहीं होती है.
कोई ईश्वर की बात करे भी तो उसे पागल कहकर चुप करा देने में उसे आनंद आता है. आत्मा का उसे कोई अनुभव नहीं होता. मूढ़ का मात्र विश्वाश चार्वाक के इस सिद्धांत में है कि – “ जब तक जियो सुख से जियो, कर्ज करके घी पियो.” ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्म तक आवागमन के बंधन से बंधा रहता है.
२- अज्ञानी व्यक्ति- मूढ़ व्यक्ति से थोड़ा उत्तम होता है. कभी-कभी कोई धार्मिक पुस्तक पढ़ लेता है और सत्संग आदि भी कर लेता है. पर्यटन के भाव से तीर्थस्थान पर भी हो आता है. इसके आगे अध्यात्म में उसकी कोई रूचि नहीं होती.
आत्मा-परमात्मा, अज्ञान कैसे मिटेगा? मृत्यु क्या है? मृत्यु के बाद क्या है? आदि आध्यात्मिक प्रश्नों के प्रति उसकी कोई जिज्ञासा नहीं होती. ऐसा व्यक्ति भी जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है.
3- जिज्ञासु – ऐसा व्यक्ति अज्ञानी से थोड़ा उत्तम होता है. आध्यात्मिक विषय के सम्बन्ध में निरंतर पूछताछ करता है. आध्यात्मिक ज्ञान बढ़ाने के लिए उचित साहित्य पढता है. अंतःकरण को शुद्ध करके अपना वर्तन तैयार किये रहता है ताकि कोई वास्तविक ब्रह्मनिष्ठ महात्मा मिले तो ब्रह्मज्ञान से उसका खाली बर्तन भर दे.
4- मुमुक्ष - ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने में राजा जनक जैसे मुमुक्ष का उदाहरण मिलता है. जो मुनि अष्टावक्र जी जैसे ज्ञानी का इशारा पाते ही ब्रह्मज्ञान से निहाल और कृतार्थ हो गए. पिछले जन्मों की नाम कमाई और इस जन्म का तप, अंतःकरण को शुद्ध करके मुमुक्ष बनने में सहायक होते हैं. मुमुक्ष ब्रह्मज्ञान रूपी अमृत चखकर ब्रह्मज्ञानी हो जाता है और भगवत प्राप्ति कर लेता है.
5- ज्ञानी- ऐसा व्यक्ति उपरोक्त चारों तरह के व्यक्तियों से श्रेष्ठ होता है. ज्ञानी जानता है की ब्रह्माण्ड में मात्र एक ही दिव्य, चिन्मय सत्ता है और वह है परमात्मा. केवल यह ही सत्य है शेष सब जड़ प्रकृति है जो विकारी है. ज्ञानी अपने को मात्र चेतन आत्मा मानता है और संसार से व्यवहार करता है. गृहस्थ में रहते हुए भी संसार में वह अपने में रहता है. यह अनुभव उसे आवागमन से मुक्त कर देता है.
– तैत्तिरीयोपनिषद (२/1) आत्मा में स्थित आत्मज्ञानी जब परमात्मा से संयोग लगाता है तो ब्रह्मज्ञानी हो जाता है.
ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्ति की जड़ चेतन ग्रंथि का नाश हो जाता है. जड़ और चेतन का संयोग अहम् कहलाता है. यह अहम ही मनुष्य के बंधन का कारण है.
– श्रीमद्भागवत गीता (7/5) -अनादिकाल से चेतन आत्मा ने स्वयं को जड़ प्रकृति से जोड़ लिया है. इस संयोग का परिणाम है जड़-चेतन ग्रंथि . जब तक यह गांठ खुलती नहीं तब तक आत्मा जन्म-मरण के बंधन से आजाद नहीं हो सकती. मैं कौन हूँ? मेरा आश्रय कौन है? मृत्यु के बाद मेरा क्या होगा? आदि आदि प्रश्न हल हो जाते हैं.
ज्ञानी आनंद में जीवन जीता है.
( मुण्डक उपनिषद- २/२/८) - छिद्यन्ते सर्वसंशयाः - ब्रह्मज्ञानी के सारे संशय कट जाते हैं.
(छान्दोग्य उपनिषद- 7/1/3) - आत्मवेत्ता शोक को पार कर लेता है. ब्रह्मज्ञानी का आवागमन कट जाता है.
- ( मुण्डक उपनिषद- २/२/८) - ब्रह्मज्ञानी की आत्मा की यात्रा सदा के लिए समाप्त हो जाती है क्योंकि वह ब्रह्म रुपी गति पा जाता है.
– श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार- ब्रह्मज्ञान से समस्त शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं. समस्त विजातीय तत्व दूर हो जाते हैं. जन्म-मरण के लिए दायी संचित कर्म ही जल जाते हैं. कर्मों का सम्बन्ध मन से है. मन के न रहने से कर्मों का क्षय हो जाता है. जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि समस्त इंधन को भष्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भष्म कर देती है.
ज्ञान के समान पवित्र करने वाला दूसरा कोई साधन नहीं है.
श्वेताश्वतर उपनिषद - ब्रह्म को जानकर मनुष्य मृत्यु से छुटकारा पाने में समर्थ होता है.
मुण्डक उपनिषद- ब्रह्मज्ञान का फल जन्म-मरण से छूट कर परमात्मा को प्राप्त हो जाना है. जैसे बहती हुई नदियाँ सागर से मिलकर अपना अस्तित्व खो देती हैं, वैसे ही ब्रह्मज्ञान से मनुष्य की आत्मा ब्रह्म में लीन हो जाती है.
मन में अधिकांशतः विचार नकारात्मक श्रेणी के होते हैं जिससे जीवन का स्तर नीचे गिरता है. ब्रह्मज्ञान हो जाने के बाद सकारात्मक विचार हो जाते हैं. प्रारब्ध को भोगने में सकारात्मक विचार बहुत उपयोगी होते हैं. अतः ब्रह्मज्ञानी के जीने का ढंग समाज के लिए एक मिशाल बन जाता है. इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी का जीवन सरल और सहज हो जाता है.
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