स्कन्द महापुराण में वर्णित श्रीहरि विष्णुजी का गोमती नदी के किनारे बना है पाटनारायण मंदिर

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पौराणिक गोमती नदी के तट पर बना श्री पाटनारायण मन्दिर, जिसे स्कन्द महापुराणान्तगर्त नारायण हृद तीर्थ के नाम से जाना जाता है।
श्री पाटनारायण राजवंश पौराणिक महाराजा अम्बरीष की पटरानी द्वारा इस मंदिर का निर्माण हुआ और भगवान नारायण (विष्णु) की प्रतिष्ठित प्रतिमा से प्रतिष्ठित होकर इनका नाम पटनारायण रखा गया। महाराजा अंबरीष और उनके वंश तथा राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश आदि कई प्रांतों के राजा इस तीर्थ-धाम में पाटोत्सव मनाते थे, इसलिए इस मंदिर का नाम "पाटनारायण" रखा गया। पतनारायणं देवं परा भक्ति प्रदम हरिम्। वन्दे अर्बुदंऽ चलम् प्रत्यक्षम् देव वन्दितम् ॥
भगवान् नारायण (विष्णु) अकेले कैसे ? इसकी कथा कुछ इस प्रकार से है:एक समय भगवान् विष्णु और देवी लक्ष्मी जी में वाद-विवाद होने से रुष्ट होकर विष्णु ने लक्ष्मीजी को अश्विका (घोड़ी) बन जाने का शाप दे दिया। शापित लक्ष्मीजी ने अत्यन्त दुःखी होकर शाप- मुक्ति का उपाय पूछा। तब अत्यन्त रुष्ट भगवान् विष्णु ने कहा कि जब तर इस पशु शरीर से किसी नर का जन्म होगा तब तुम्हारा उद्धार होगा। यह सुनकर देवी लक्ष्मी थर-थर कांपती हुई धराशायी हो गयी और अश्विका बन कर गोमती नदी के तट पर घास चरने लगी तथा भगवान् विष्णु अकेले गोमती तट पर खड़े होकर तपस्या करने लगे।
जब भगवान् शिव को इस वृतान्त का ज्ञान हुआ तो उन्होने आकर स्वयं के सती मोह का उदाहरण देकर भगवान् विष्णु को समझाया। भगवान् विष्णु को स्वयं के अपराध का बोध होने पर उन्होने भगवान् शिव से उसके परिमार्जन का उपाय पूछा। तब भगवान् शिव ने विष्णु को अश्वरूप धारण करके अश्विका (लक्ष्मी) के साथ संयोग करके उसे शाप मुक्त करने का सुझाव दिया। विष्णु अश्व और लक्ष्मी (अश्विका) के संयोग से उत्पन्न संतान का नाम" हैय-हय" हुआ। हैय-हय वंशीय क्षत्रियों ने अखिल भारत में शासन किया। हैय हय वंशी राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन ने सत्ता मद में चूर होकर जमद‌ग्नि ऋषि का वध कर दिया, फलत: जमदग्नि ऋषि के पुन्न परशुरामजी ने प्रण पूर्वक अपने परशु से सम्पूर्ण हैयहय वंशी एवं उनके सह‌योगी क्षत्रियों का २१ बार संहार करके उनका राज्य ब्राह्मणों को अर्पित कर दिया। ब्राह्मणों की क्षमाशीलता से उनके शासन में सर्वत्र अराजकता व्याप्त हो गयी,अतः शासन व्यवस्था संभालने हेतु अर्बुदाचल के संस्थापक महर्षि वशिष्ठजी ने विशाल यज्ञ करके मृतसंजीवनी विद्या द्वारा चार प्रधान देवताओं के अंश से चार प्रकार के राजपुत्रों- परमार, परिहार, सोलंकी व चौहान की उत्पत्ति की। वशिष्ठाश्रम में ऐतिहासिक अग्नि कुण्ड दर्शनीय है।
श्री पाटनारायण मंदिर कई शताब्दियों से श्री निम्बार्क सम्प्रदाय के सन्त-महंतों की तपस्थली रहा है। मुगल आक्रमण, प्राकृतिक प्रकोप आदि अनेक कारणों से यह स्थान वीरान सा हो गया था। गो लोक वासी श्री महंत श्री- सीताराम दास जी महाराज एवं उनके शिष्य श्री महंत श्री अचलदासजी महाराज ने अपने कार्यकाल में इसका यथासंभव विकास करवाया। तदन्तरम् श्री महंत श्री अचलदास जी महाराज की आज्ञा, प्रेरणा व आशीर्वाद से उनके सुशिष्य महंत पाटनारायण धाम गादीपति आयुर्वेदाचार्य श्री श्री १००८ श्री युगल शरणजी महाराज द्वारा अखिल भारत के असंख्य असाध्य रोगियों को आरोग्य प्रदान करके आयुर्वेद की आराधना से स्वावलम्बन पूर्वक किये गये।
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