वास्तव में गुरु द्वारा शिष्य को गुरुदीक्षा के समय दिया गुरुमंत्र ही शिष्य के लिए नई पहचान और उड़ान का आधार बनता है। गुरुमंत्र गुरु द्वारा शिष्यों को दिया गया एक प्रकार का ब्रह्मकवच है, जिससे गुरु अपने शिष्य को खुद का खुद से परिचय कराता है, इस नामकरण की युगों-युगों से चली आ रही परम्परा के द्वारा शिष्य के जीवन में आमूलचूल रूपांतरण और नये व्यक्तित्व का निर्माण सम्भव बनता है।
शिष्य जैसे जैसे गुरु मंत्र जप के सहारे जीवन की गहराई में उतरता है। वैसे वैसे उसके कषाय, कल्मष, दुर्गुण, दुर्व्यसन, जलन, कुढ़न, द्वेष, हताशा-निराशा आदि सभी प्रकार के विभ्रम-जड़तायें गायब होती जाती हैं। शिष्य के मूलाधार से लेकर सहड्डधार तक तथा उसके अंतःकरण और व्यक्तित्व के सूक्ष्मतम तल में छिपी आध्यात्मिक शक्तियां उभरने लगती हैं। धीरे – धीरे आत्मज्योति जल उठती है और उसे सब में अपना ही स्वरूप नजर आता है, सब अपने अनुभव होते हैं।
दुरावमुक्त इस अवस्था पर पहुंचकर शिष्य को अपने गुरु की विराटतम गहराई का आभास होता है। तब जाकर अपने गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा चरम की ओर प्रयाण करती है और शिष्य में इन क्षणों इस बात का पछतावा जन्म लेता है कि हम अपने जिस गुरु को मात्र हाड़मांस का पुतला समझ रहे थे, उसकी महिमा की तो थाह ही नहीं। इस प्रकार एक समय बाद गुरु समर्पित साधनारत शिष्य को अपने गुरु में साक्षात नारायण के दर्शन होने लगते हैं। इसी को शिष्य के शिष्यत्व और गुरु के गुरुत्व की चरम सफलता कहते हैं।
करिष्ये बचनं तव
तब शिष्य को अपने गुरु के मुख से निकले सामान्य से सामान्य शब्द भी साक्षात ब्रह्ममय अनुभव होने लगते हैं। करिष्ये बचनं तव का संकल्प शिष्य के अंतःकरण में इससे पहले जग ही नहीं सकता और जब जब किसी शिष्य के अंतःकरण से अपने गुरु के प्रति यह संकल्प उठा है, तो इस धरा का कायकल्प व पूर्ण रूपांतरण ही हुआ है। संस्कृतियों ने करवट ली है। शिष्य के जीवन में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्रकृति और संस्कृतियां आमूलचूल बदलने को मजबूर हुई हैं। जो धरा पर नये सूरज के उदय जैसा है।
इस भारत भूमि पर असंख्यों शिष्यों ने इसी तरह अपनी गुरुदीक्षा को ऊंचाइयां दी हैं। भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र से दीक्षा ली, श्रीकृष्ण ने संदीपन से, वीर हनुमान, अर्जुन, कबीर, रामानुजाचार्य, शंकराचार्य, माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, स्वामी दयानन्द सरस्वती, वीर शिवाजी, स्वामी विवेकानन्द, लहड़ी महाशय, लेकर असंख्य महान शिष्यों के उदाहरण इस भारत भूमि पर भरे पडे़ हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। इस नव निर्माण और रूपांतरण को गुरु गीता में स्वयं भगवान् शिव कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-
गुकारश्चान्धकारः स्याद्रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञाननाशकं ब्रह्म गुरुदेव न संशयः।।
गुकारो प्रथमो वर्णो मायादिगुणभासकः।
रुकारो द्वितीयो वर्णो मायाभ्रान्ति विमोचकः।।
छोटा सा संकल्प जीवन में बड़े सौभाग्य
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इसीलिए सद्गुरुओं, सच्चे संतों का आदर सम्मान, गुरु की पूजा करना किसी व्यक्ति का आदर नहीं, बल्कि वह साक्षात् सच्चिदानन्द परमेश्वर का आदर माना जाता है। अतः आत्मज्योति को जागृत कर परमात्मा का प्रकाश पाने के लिए सद्गुरु और उनके द्वारा प्राप्त गुरुमंत्र का आदर हर युग में होता रहेगा। अतः हर शिष्य को जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग करते हुए आनन्द, भक्ति, शांति के साथ गुरु संगत में रहने का हर सम्भव अवसर तलाशते रहना चाहिए। गुरुदीक्षा गुरु का शिष्य पर विशेष अनुग्रह ही तो है।
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