अवधूतोपाख्यान (24 गुरुओं की कथा) - 28

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हमारे जीवनधन श्रीकृष्ण अपने प्रिय सखा श्रीउद्धव जी जो बुद्धिमानों में श्रेष्ठ, बृहस्पतिजी के शिष्य, वृष्णिवंश के मंत्री हैं, उन्हें हमसब के भी कल्याण हेतु उपदेश कर रहे हैं। यदुजी और दत्तात्रेय भगवान के संवाद के माध्यम से जीवन के विषाद को समाप्त करने की कला बता रहे हैं। यह विषाद ज्ञान के प्रसाद से ध्वस्त होगा।

पिंगला वैश्या जो विदेहनगर में रहती थी, एक बार कामना पूरी नहीं हुई और उसके जीवन में निर्वेद (वैराग्य) आ गया- फिर जो उसने बातें कही है वह हमसबके लिये बहुत उपयोगी है। उसने संसार के असारत्व का चिन्तन किया। शरीर के दोषयुक्त होने की बात कही और कहा जो जनकपुर जीवनमुक्तों की नगरी है, जहाँ सब जीवनमुक्त है, ऐसे पवित्र स्थान में केवल वह ही मूढ़धी (मूर्ख) है।

संसार के जितने भी पदार्थ हैं वे सब नष्ट भ्रष्ट होने वाले ही है। संसार के संग्रह में लगा हुआ, मान प्रतिष्ठा संपत्ति के संग्रह में लगा हुआ मूढ़धी ही है।वह जो सभी देह धारियों का सुहृद है, प्रेष्ठतम है, वही सबका नाथ अर्थात् आत्मा है, अब उनको प्राप्त करेंगीं, ख़रीद लेंगीं। अपने मैं को, अहंकार, अहंता को उसकी कीमत के रुप में देकर ख़रीद लेना है। फिर जैसे लक्ष्मी नारायण के साथ रमण करती हैं वैसे ही रमण करूँगी।

एक महात्मा कहते थे साधक को परम स्वार्थी होना चाहिए जैसे व्यापारी साल के अंत में बैलेंस शीट मिलाता है की कंपनी में कितना घाटा कितना फ़ायदा हुआ, वैसे ही साधक को भी अपना बैलेंस मिलाना चाहिए की पिछले साल से भक्ति का धन, वैराग्य की संपत्ति, सहनशक्ति बढ़ी है की नहीं बढ़ी।कहाँ हमारी गति हो रही है हमारा यह अध्यात्म धन बढ़ रहा है कि नहीं।

पिंगला कहती है की उसके किसी कर्म के कारण भगवान प्रसन्न हो गये जिससे उसे निर्वेद हुआ है। भगवान की कृपा से वैराग्य हो गया और इसका फल सुख है आनंद है। निर्वेद का प्रत्यक्ष कारण क्लेश, दुःख ही है। निर्वेद का फल है-जितने अनुबंध है सब के सब अपने आप टूट गये और फिर शान्ति की प्राप्ति हो गयी। शान्ति चाहिए तो संसार से संबंध मत बढ़ाओ, उसे काटो।

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तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसङ्गताः।
त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम्॥३९

अब मैं भगवान्‌का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगोंकी दुराशा छोडक़र उन्हीं जगदीश्वरकी शरण ग्रहण करती हूँ ॥ ३९ ॥
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अब ये कहती है जिसने मेरे ऊपर उपकार किया है, जिसके कारण वैराग्य मिला, शांति हुई है, उसको हम हाथ जोड़कर स्वीकार करतीं हैं। उनके उपकार के कारण विषय भोगी, इन्द्रिय लोलुप लोगों से छूट गई।अब हम उन्हीं की शरण में चली जायेंगी जो अधीश्वर हैं। अब अपना कर्तव्य करेंगी सुख-शान्ति से जीवन को सदा-सर्वदा के लिए भर देंगी।

भगवान जीव के लिये संयोग बनाते हैं उसे हम उपयोग कर पायें यही अपने ऊपर अपनी कृपा करना है। हमारे जीवन में ऐसी गति हो यही भगवान के चरणों में प्रार्थना है...


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