मां शेरावाली दुर्गा ने महिषासुर का वध्द कैसे किया || ma sherawali Durga ne mahishasur ka wadha keyseमहर्षि व्यास द्वारा रचित अनेक पुराणों में से एक पुराण है श्रीमद् देवीभागवत पुराण, जो माँ दुर्गा की उत्पत्ति और उसके कर्तव्यों की रोचक गाथा है। इसमें बताया गया है कि एक समय सृष्टि पर महिषासुर नाम का एक राक्षस था, जिसका आधा शरीर असुर जैसा और आधा भैंस जैसा था। उसने कठोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से यह वरदान पा लिया कि कोई भी देव, दैत्य या मानव उसे मार नहीं सके, कोई स्त्री ही उसे मारे। उसे यह भ्रम था कि जो स्वयं अबला है, वह मुझे मारने में समर्थ कैसे हो सकेगी?
दुर्गा अर्थात् दुर्गुणनाशिनी
अमर होने के अहंकार में आकर उसने देवताओं को सताना प्रारम्भ कर दिया। सभी देवताएँ दया की गुहार लेकर ब्रह्मा जी के पास पहुँचे। ब्रह्मा जी, शंकर जी तथा विष्णु जी के पास पहुँचे। विष्णु जी की राय से सभी देवताओं के सम्मिलित तेज से एक नारी रत्न की उत्पत्ति हुई जिसे नाम मिला ‘दुर्गा’। दुर्गा अर्थात् यज्ञ रूपी दुर्ग की रक्षा करने वाली, दुर्गुणों का नाश करने वाली, दुर्गम कार्यों को सरल करने वाली तथा दुर्गति नाश करने वाली।
असुरों से देवी का युद्ध
सभी देवताओं ने देवी को अलग-अलग आयुध प्रदान किये और आभूषणों से भी अलंकृत किया। जब वे सज-धज कर विराजमान हुई तो त्रिलोकी को मुग्ध करने वाले उनके दिव्य दर्शन पाकर देवताएँ उनकी स्तुति करने में संलग्न हो गये। अजन्मी भगवती ने तभी अपने मुख से वाणी निकाली जिसे सुन महिषासुर का सिंहासन हिलने लगा। उसने अपने असुर साथियों को इस आवाज़ का पता लगाने भेजा। जब उन असुरों ने बताया कि यह आवाज़ एक सुन्दरी देवी की है तो उसने विवाह का प्रस्ताव देकर अपने असुरों को देवी के पास भेजा। देवी के विवाह से मना करने पर उन्होंने देवी से युद्ध किया और मारे गये। वे असुर देवी को महिषासुर की सेवा करने के लिए मनाते रहे, उसके रूप की महिमा करते रहे परन्तु मना कर देवी ने एक-एक कर उन सभी को मौत के घाट उतार दिया।
देवी के कर्तव्य की यादगार नवरात्रे
इसके बाद महिषासुर स्वयं आया और देवी के साथ बड़ी लुभावनी बातें करने लगा। परन्तु देवी ने उसे युद्ध के लिए ललकारा और वह भी मारा गया। इन असुरों से युद्ध करते-करते नौ दिन बीत गये इसलिए भक्तिमार्ग में नवरात्रों का त्यौहार इसी कर्तव्य की याद में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कहा गया है कि ‘कलियुग का नाश माँ दुर्गा ने किया।’ कलियुग नाश का अर्थ है – ‘कलियुग में उपस्थित राक्षसी वृत्तियों का नाश’। इनके नाश के बाद ही देवी वृत्तियों का युग सतयुग आया।
नवरात्रे वर्ष में दो बार
भारत में जितने भी देवता या अन्य महात्मा हुए हैं उन सबका यादगार दिवस वर्ष में एक बार मनाया जाता है परन्तु देवी दुर्गा के निमित्त नवरात्रे वर्ष में दो बार मनाये जाते हैं। इससे देवी के अवतार लेने और कर्तव्य करने की महिमा अन्यों की भेंट में द्विगुणित हो जाती है। साल में दो बार आने वाले नवरात्रे हमें प्रेरित और जागरूक करते हैं कि सृष्टि की रक्षक, पालक और मार्ग-दर्शक माँ के बारे में हम अधिक-से-अधिक जानें, उनके गुण और कर्तव्यों को पहचानें, उनका अनुकरण करते हुए आसुरी वृत्तियों का नाश करें।
कुमारी भी और सुहागिन भी, कैसे?
वास्तव में, एक ऐसी अलौकिक माँ दुर्गा को क्या हम जानते हैं? उनके बारे में कितना जानते हैं? वे कौमार्य व्रतधारी हैं। अखण्ड ब्रह्मचारिणी हैं। किसी भी आसुरी वृत्ति दृष्टि के वार से सर्वथा अछूती हैं। उनके यादगार दिवस के उपलक्ष्य में कुमारी पूजन, कुमारी भोजन और कुमारी सम्मान आयोजित होते हैं। ब्रह्मचारिणियाँ उनसे अखण्ड पवित्रता के वरदान की याचना करती हैं। इतना सब होते हुए भी वे अखण्ड सुहागिन भी मानी जाती हैं। सुहाग के सभी चिह्न सिंदूर, टीका, लाल जोड़ा, चूड़ियाँ, बिछुए, नथ, आभूषण आदि वे धारण करती हैं और संसार की सुहागिन स्त्रियाँ उनसे अखण्ड सुहाग का वरदान भी माँगती हैं। ये दोनों बातें एक साथ कैसे?
कुमारी भी और सुहागिन भी? फिर उनका पति कौन है? श्रीलक्ष्मी जी के साथ श्रीनारायण और श्रीसीता के साथ श्रीराम दिखाये जाते हैं परन्तु देवी दुर्गा के साथ किसी भी देवता का नाम नहीं लिया जाता है। मन्दिर में भी वे शेर पर सवार, नितान्त अकेली और चित्रों में भी ऐसी ही चित्रित की जाती हैं। उनकी शादी कब और किसके साथ हुई? इसका भी कोई वृत्तान्त पढ़ने को नहीं मिलता है तो इस गूढ़ पहेली का उत्तर क्या है? कोई एक साथ कुमारी भी और सुहागिन भी कैसे हो सकती है?
कन्याओं-माताओं की ईश्वरीय कार्य में लगन
इस गूढ़ राज़ को समझने के लिए बहुत शुद्ध, दिव्य और एकाग्र बुद्धि की ज़रूरत है। काल-चक्र घूमते-घूमते सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग को पार करते-करते जब कलियुग के अन्त में आ पहुँचता है तो सृष्टि में अनेक प्रकार की आसुरी वृत्तियाँ बढ़ चुकी होती हैं। इसके कारण हाहाकार करती मानवता किसी ईश्वरीय शक्ति की बाट जोहने लगती है, तब परम दयालु, कृपालु, भक्त-वत्सल, करूणामय, दाता, दिलवाले भगवान शिव इस धरती पर एक साधारण मानवीय तन में अवतरित होते हैं और उनको नाम देते हैं पिताश्री ब्रह्मा।
ब्रह्मा बाबा के वृद्ध तन में बैठकर जब वे ज्ञान-गंगा बहाने लगते हैं तो आसुरी वृत्तियों से आहत अनेक नर-नारी उनकी शरण लेने लगते हैं और जीवन को निर्विकार बना लेते हैं। उनमें भी माताएँ और कन्याएँ अधिक लगन से इस कार्य में संलग्न हो जाती हैं। कन्याएँ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की दृढ़-प्रतिज्ञा लेकर भगवान शिव को ही अपना पति मानकर उन पर न्यौछावर हो जाती हैं। विकारों से आच्छादित। कलियुग रूपी घोर रात्रि में ये कन्याएँ काम-क्रोध आदि असुरों को संसार से समाप्त करने और शान्ति, प्रेम, भाईचारा स्थापन करने में निरन्तर युद्धरत रहती हैं। इसका परिणाम निकलता है
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