वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जी सम्पूर्ण जानकारी | हल्दीघाटी, और दिवेर का युद्ध | By - RAJVEER SIR

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हमारा इस वीडियो का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ हमारे अपने हिन्दु भाईयों को अपने पूर्वजो के शौर्य, बलिदान, देशभक्ति, मातृप्रेम और स्वाभिमान से अवगत करना है जिससे वो भी स्वाभिमानी, देशप्रेमी, कर्तव्यनिष्ठ और मातृप्रेमी बनें।
महाराणा प्रताप राजपूतों के सिसोदिया वंश के महाराणा उदय सिंह के पुत्र थे, जो मेवाड़ के शासक थे। प्रताप अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध मेवाड़ के शासक बने, जिन्होंने अपने पसंदीदा बेटे जगमाल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। हालाँकि, मेवाड़ के वरिष्ठ कुलीनों ने फैसला किया कि पहले बेटे और सही उत्तराधिकारी प्रताप को राजा बनाया जाना चाहिए। इसके अलावा, महाराणा प्रताप को एक मजबूत राजपूत चरित्र का व्यक्ति कहा जाता था, वे कहीं अधिक बहादुर और शूरवीर थे। उनकी दयालुता और न्यायपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता ने उनके दुश्मनों का भी दिल जीत लिया। वे भारत के एकमात्र शासक हैं जिन्होंने मुगल शासन के आगे घुटने नहीं टेके, और इसके लिए वे आज भी देश के सबसे प्रसिद्ध शासक हैं।

हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप के अपने भाई शक्ति सिंह, जो मुगलों में शामिल हो गए थे, ने उन्हें युद्ध के मैदान से भागने में मदद की, क्योंकि उनका प्रिय और भरोसेमंद घोड़ा चेतक अपने पिछले पैर में घायल हो गया था और झाला मान नामक एक कुलीन व्यक्ति ने महाराणा के मुकुट को धोखे से पहना हुआ था। महाराणा प्रताप के भरोसेमंद घोड़े चेतक ने उन्हें अंतिम सांस लेने से पहले सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया। प्रताप को अरावली की पहाड़ियों में शरण लेनी पड़ी। अरावली के भील आदिवासी युद्ध के समय महाराणा का साथ देते थे और शांति के समय जंगलों में रहकर उनकी मदद करते थे। निर्वासन में, प्रताप ने गुरिल्ला युद्ध, दुश्मनों को परेशान करने और हल्के घोड़ों की रणनीति जैसी युद्ध रणनीतियों को निखारने में काफी समय बिताया, जिससे उन्हें मेवाड़ को वापस जीतने में मदद मिली।

प्रसिद्ध ब्रिटिश पुरातत्वविद कर्नल टॉड ने प्रताप को ‘राजस्थान के लियोनिदास’ की उपाधि दी। प्रताप पर अपने एक लेख में टॉड ने उल्लेख किया है कि, “अल्पाइन अरावली में ऐसा कोई दर्रा नहीं है जो महाराणा प्रताप के किसी न किसी काम से पवित्र न हुआ हो - कोई शानदार जीत या अक्सर, अधिक शानदार हार।”

1576 में हुए ऐतिहासिक हल्दीघाटी के युद्ध के बाद साल 1582 में एक बार फिर से महाराणा प्रताप और अकबर की सेना आमने-सामने थी। इसे हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग भी कहा जाता है। इस युद्ध में महाराणा प्रताप अपनी सेना का नेतृत्व खुद कर रहे थे जबकि अकबर की सेना का नेतृत्व अकबर के चाचा सुल्तान खान कर रहे थे। यह युद्ध मुगल सेना और महाराणा प्रताप के बीच हुआ आखिरी युद्ध था।

बेटल ऑफ दिवेर
महाराणा प्रताप ने इस युद्ध से पहले स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक बड़ी फौज तैयार की। उन्होंने गुरिल्ला सैनिक टुकड़ियों, हथियार की लूट सहित अपने युद्ध कौशल से मुगल सेना की हालत पहले ही खराब कर दी थी। वहीं युद्ध के दौरान अपनी सेना को दो टुकड़ों में बांट दिया। एक टुकड़ी का नेतृत्व वह खुद कर रहे थे जबकि एक टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे।

अमर सिंह ने सुल्तान खान को मारा
युद्ध के दौरान अमर सिंह की टुकड़ी का सामना अकबर के चाचा सुल्तान खान से हुआ। सुल्तान खानएक घोड़े पर सवार था। इसी दौरान अमर सिंह ने अपने भाले से सुल्तान खान पर ऐसा वार किया कि भाला सुल्तान खान के शरीर और घोड़े को चीरते हुए जमीन में धंस गया और सुल्तान खान वहीं मारा गया।

महाराणा प्रताप का शौर्य
युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप का सामना बहलोल खान से हुआ। वह अकबर का बड़ा सिपहसालार था। जब वह महाराणा प्रताप के सामने आया तो महाराणा ने उस पर ऐसा वार किया कि अपनी तलवार से उसे घोड़े समेत दो टुकड़े में काट दिया। इस दो घटनाओं को देख मुगल सेना इतनी डर गई कि वह युद्ध का मैदान ही छोड़कर भाग गई। इसके बाद महाराणा ने उदयपुर समेत के अहम जगह पर अपना अधिकार स्थपित कर लिया था।

इस युद्ध मे अकबर की सेना के 36000 सैनिक अपने सेनापति सहित मारे गये, इस युद्ध के बाद अकबर इतना भयभीत हो गया की अगले 12 सालो तक महाराणा प्रताप पर एक भी आक्रमण नही किया और इधर महाराणा ने अपनी सारी जमीन-भूभाग जो अकबर के अधीन था फिर से जीत लिया सिर्फ चित्तौड़गड़ दुर्ग को छोड़कर और अगले 12 सालो तक निर्विरोध शाशन किया

महाराणा प्रताप की मृत्यु 57 वर्ष की आयु में शिकार करते समय घायल होने के कारण हुई।
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