#Jesus #Gratitude #God
कहा जाता है कि सपना सच होता है। सपना न संजोने से, सपना पूरा नहीं होता। लेकिन जब कोई सपना संजोता है और सपना पूरा करने का प्रयास करता है, तब अवश्य ही सपना सच होता है। कहावत भी है, “जहां चाह, वहां राह।”
2 हज़ार वर्ष पहले, जब यीशु ने कहा कि “जाओ और सब जातियों के लोगों को चेले बनाओ तथा उन्हें पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो”(मत 28:19), उसने इसमें कोई शर्त नहीं लगाई। जो कोई जाने की इच्छा करे, वह जा सकता है। सभी लोग जो परमेश्वर पर सम्पूर्ण भरोसा करते हैं, परमेश्वर के आश्चर्यजनक कार्य में भाग ले सकते हैं।
इसलिए हरेक सदस्य को अपनी कमियों को सोच कर हिचकने के बजाय, उस परमेश्वर के सामर्थ्य की याद करनी है जो अपना महान कार्य निर्बलों और दीनों के द्वारा करता है।
प्रभु यीशु ने अपने चेलों को जो प्रार्थना सिखाई, उसमें पहली बिनती थी, ''तेरा नाम पवित्र माना जाए।'' प्रभु यीशु के हृदय की यह मूल इच्छा थी। उसने प्रार्थना की, ''पिता, अपने नाम की महिमा कर'' और उसने क्रूस का मार्ग अपनाया क्योंकि वह परमेश्वर की महिमा के लिए था (यूहन्ना 12:27-28)। प्रभु यीशु के जीवन में एक ही बात की लगन थी - पिता की महिमा। जो कुछ भी वह करता था, वह परमेश्वर की महिमा के लिए था। उसके जीवन में पवित्र और संसारिक और दो भाग नहीं थे। सबकुछ पवित्र था। जिस प्रकार वह परमेश्वर की महिमा के लिए प्रचार करता था और लोगों को चंगा करता था, उसी प्रकार वह परमेश्वर की महिमा के लिए स्टूल और बेंच बनाता था। हर दिन उसके लिए समान रूप से पवित्र था, और प्रति दिन के जीवन के लिए जो पैसा वह खर्च करता था, वह पैसा उतना ही पवित्र था जितना कि परमेश्वर के कामों के लिए या गरीबों के लिए दिया जाने वाला पैसा।
प्रभु यीशु हर समय पूर्ण शांति में रहता था, क्योंकि वह केवल अपने पिता की महिमा चाहता था और केवल अपने पिता की मान्यता का ध्यान रखता था। वह अपने पिता कें सन्मुख रहता था और मनुष्यों के आदर और प्रशंसा का ध् यान नहीं रखता था। ''जो अपनी ओर से कुछ कहता है, वह अपनी ही बढ़ाई चाहता है'' (यूहन्ना 7:18)।
परमेश्वर की योजना प्राप्त करने के लिए यीशु अपने पिता की बाट जोहता था, वह उस योजना को वह पूरा करने के लिए वह उस सामर्थ की भी बाट जोहता था ताकि वह परमेश्वर की सामर्थ में होकर पिता की संपूर्ण इच्छा को पूरा कर सके। परंतु इतना ही नहीं था, अपनी कुछ बड़ील सफलताओं को प्राप्त करने के बाद, परमेश्वर को महिमा देने के लिए वह प्रार्थना करने जाता था। वह अपने परिश्रम का प्रतिफल परमेश्वर को बलिदान के रूप में अर्पण करता था। वह न तो खुद के लिए महिमा की खोज करता था, बल्कि जब उसे महिमा दी जाती, तो वह उसे स्वीकार भी न करता था (यूहन्ना 5:41, 8:50)। जब उसका नाम चारों तरफ फैल गया, तब पिता को महिमा देने के लिए वह पहाड़ पर चला गया (लूका 5:15,16)। उसने निर्णय लिया था कि वह कभी खुद के लिए महिमा न लेगा। इस प्रकार की प्रवृत्ति का फल यह था कि पृथ्वी पर यीशु के जीवन के अंत में, वह ईमानदारी के साथ कह सका, ''मैंने पृथ्वी पर तेरी महिमा की है'' (यूहन्ना 17:4)। वह पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में परमेश्वर की महिमा करने आया था। हर दिन वह उसी लक्ष्य के साथ जीवन बिताता था। उसने गिड़गिडाकर प्रार्थना की कि केवल पिता को महिमा मिले, चाहे उसका जो मूल्य उसे देना पडे। और अंत में वह मर गया ताकि जैसे स्वर्ग में वैसे ही पृथ्वी पर पिता की महिमा हो, उसे आदर मिले और वह ऊंचा उठाया जाए।
यीशु ने परमेश्वर की महिमा इस प्रकार करना चाहा ताकि उसने जो आश्चर्यकर्म किए उनसे बड़े आश्चर्यकर्मों को करने के लिए वह मार्ग तैयार करने तैयार था (यूहन्ना 14:12)। निःसंदेह यह महान कार्य कलीसिया को बनाना था जिसमें उसके सदस्य वैसे ही एक हों, जैसे पिता और पुत्र एक है (यूहन्ना 17:21-23)। इस पृथ्वी पर यीशु के जीवनकाल में, उसके दो चेले भी वैसे एक नहीं हुए थे, जैसा पिता और पुत्र थे। वे सब अपना ही स्वार्थ देखते थे। परंतु पिन्तेकुस्तके दिन के बाद, उसके कई चेले वैसे ही एक बने हैं जैसा उसने चाहा। यह बड़ा कार्य था। यीशु ने महान कार्य करने के लिए दूसरों के लिए मार्ग तैयार किया। वह मर गया और उसने ऐसी नींव डाली जिस पर उसके चेलों ने निर्माण का काम किया।
यीशु में स्वार्थ नहीं था। जो काम उसने किया यदि उसके द्वारा पिता की महिमा होती है, तो उसे इस बात की परवाह नहीं थी कि किसी और को इसका श्रेय मिले। यदि आज हम कलीसिया में, मसीह की देह में जीवन लाना चाहते हैं, और यदि उसे मसीह के पूरे डीलडौल तक लाना चाहते तो आत्मा हमें प्रेरित करने पाए।
यीशु केवल पिता के सन्मुख पूर्ण रूप से जीवन बिताता रहा; और जिसने उसे क्रूस पर चढ़ाया, उनके सामने मरे हुओं में से जी उठने के बाद खुद को निर्दोष साबित करने की उसने परवाह नहीं की। संसार की और यहूदी अगुवों की दृष्टि में यीशु की सेवकाई पूर्ण रूप से असफल थी। यदि यीशु शरीर के अनुसार चलता, तो वह अपने पुन्रुत्थान के बाद वापस जाता और उन अगुवों के सामने प्रगट होता ताकि उन्हें उलझन में डाले और उने सामने खुद को निर्दोष साबित करे। परंतु उसने ऐसा नहीं किया। पुन्रुत्थान के बाद, उसने खुद को केवल उन्हीं लोगों के सामने प्रगट किया, जो उस पर विश्वास करते थे। यीशु के लिए बदला लेने का पिता का समय अभी नहीं आया था - और यीशु रुकने के लिए तैयार था। वह समय अब तक नहीं आया है।
इसलिए हमें खुद से यह सवाल करना है : क्या मैं केवल परमेश्वर की महिमा के लिए जीवित हूं और परिश्रम करता हूं?
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