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Скачать или смотреть क्या दिवाली, गोवर्धन, भाई दूज मनाना व्यर्थ है? | Sant Rampal Ji LIVE Satsang

  • Sant Rampal Ji Maharaj
  • 2025-10-18
  • 23436
क्या दिवाली, गोवर्धन, भाई दूज मनाना व्यर्थ है? | Sant Rampal Ji LIVE Satsang
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क्या दिवाली, गोवर्धन, भाई दूज मनाना व्यर्थ है? | Sant Rampal Ji LIVE Satsang

यूँ तो हमारे देश में त्योहारों की एक लंबी फेहरिस्त है, और हर त्योहार के पीछे कोई न कोई कहानी, कोई न कोई मकसद जुड़ा होता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि आज उन मकसदों को भी जंग लग चुकी है? क्या अब त्योहार बस कैलेंडर की एक तारीख बनकर रह गए हैं, जिनकी आत्मा कहीं खो गई है? यही सवाल हमें भारत के सबसे बड़े त्योहार — दिवाली — की गहराइयों तक ले जाता है।

कहने को तो दिवाली प्रकाश का पर्व है, अंधकार पर उजाले की जीत का प्रतीक। कहा जाता है कि इस दिन श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे और पूरी नगरी ने घी के दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन क्या आज की दिवाली उसी उजाले का उत्सव है या फिर धुएँ और शोर से भरी एक रात बन चुकी है? जिस दिन आत्मा को प्रकाशित करना था, उस दिन हम बारूद से वातावरण को काला कर देते हैं। जिस त्योहार का उद्देश्य था भीतर का अंधकार मिटाना, वह आज दिखावे और प्रदूषण की भेंट चढ़ चुका है।

लेकिन इस कहानी का एक छिपा हुआ अध्याय भी है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। कहते हैं, अयोध्यावासियों ने दो साल बाद दिवाली मनाना ही बंद कर दिया था। वजह ऐसी थी जिसने पूरे राज्य को हिला दिया — वही श्रीराम, जिनकी वापसी पर अयोध्या ने उत्सव मनाया था, उन्होंने एक साधारण ताने के कारण अपनी गर्भवती पत्नी सीता को त्याग दिया। उस अन्याय की टीस इतनी गहरी थी कि प्रजा ने दीये जलाना बंद कर दिया। सोचिए, जिस रानी की वापसी पर दीप जलाए गए थे, उसी के अपमान के बाद वही दीप सदा के लिए बुझ गए।

इतना ही नहीं, दिवाली के नाम पर जो लक्ष्मी और गणेश की पूजा आज हम करते हैं, उसका भी आधार कमजोर है। धर्मग्रंथ बताते हैं कि स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और शिव अपनी माता आदिशक्ति दुर्गा की शरण में रहते हैं, और ये सब भी कर्म के बंधन में बंधे हैं। जब ये देवता खुद किसी की किस्मत नहीं बदल सकते, तो उनकी पूजा से हमें क्या मिल सकता है? शायद यही कारण है कि समृद्धि की देवी को बुलाते-बुलाते हम खुद अपनी सेहत, हवा और शांति को खो चुके हैं।

फिर आता है गोवर्धन पूजा — जिसे हम श्रीकृष्ण की भक्ति मानते हैं। पर क्या सचमुच यह भक्ति है या भगवान के आदेश की अवहेलना? जब स्वयं श्रीकृष्ण ने देवताओं की पूजा रोककर परमेश्वर की आराधना करने को कहा था, तब आज हम उन्हीं देवताओं और उसी पर्वत की परिक्रमा क्यों कर रहे हैं? क्या हम अज्ञानवश उसी भूल को दोहरा रहे हैं जिससे बचने की चेतावनी स्वयं श्रीकृष्ण ने दी थी? और क्या ये सच नहीं कि जब लाखों लोग परिक्रमा करते हैं, तो उनके पैरों तले अनगिनत जीव-जंतु कुचलकर मर जाते हैं? पुण्य कमाने की चाह में हम अनजाने में पाप के रास्ते पर चल रहे हैं।

दिवाली और गोवर्धन के तुरंत बाद आता है भाई दूज — प्रेम और सुरक्षा का प्रतीक कहा जाने वाला पर्व। बहनें भाइयों के माथे पर कुमकुम लगाकर उनकी लंबी उम्र की कामना करती हैं। लेकिन क्या वास्तव में यह सुरक्षा की गारंटी है? अगर हाँ, तो फिर हादसे इन्हीं दिनों क्यों होते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी आस्था अब रस्मों में कैद होकर अपनी शक्ति खो चुकी है?

संत रामपाल जी महाराज अपने सत्संगों में बताते हैं कि असली रक्षक, असली उद्धारक और असली पाप-नाशक कोई देवता या देवी नहीं, बल्कि वह परम शक्ति है जो कर्म के बंधन को भी तोड़ सकती है। वही जो शास्त्रों में “कविर्देव” के नाम से वर्णित है, जो अविनाशी है, जो सबका पालनहार है। वही असली प्रकाश है — जो दीये के तेल से नहीं, ज्ञान की लौ से जलता है।

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