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Скачать или смотреть कर्ण ने इंद्र से क्या माँगा , कवच कुण्डल के बदले ? | danveerkarna | mahabharat

  • Artha
  • 2024-04-01
  • 665
कर्ण ने इंद्र से क्या माँगा , कवच कुण्डल के बदले ?  | danveerkarna | mahabharat
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Описание к видео कर्ण ने इंद्र से क्या माँगा , कवच कुण्डल के बदले ? | danveerkarna | mahabharat

#artha

दिव्य कवच-कुंडल के साथ कर्ण अजेय थे और महाभारत के युद्ध में पांडव कभी उसे परास्त नहीं कर पाते। भगवान कृष्ण भी यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। और महावीर कर्ण का प्रण था की महाभारत युद्ध में या तो वे जीवित रहेंगे या फिर अर्जुन । ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई संभावना नहीं थी। उधर देवराज इन्द्र भी अर्जुन के लिए चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका ही दिव्य पुत्र था। तब श्री कृष्ण ने अर्जुन की सुरक्षा के लिए देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया। जिस उपाय के तहत इन्द्र को एक ब्राह्मण भिछुक का रूप धरकर कर्ण से दान मांगना था। फिर क्या था इन्द्र को तो बहरूपिया बनने में महारत हांसिल थी ही । अतः इन्द्रदेव कर्ण से सुबह स्नान के समय, एक ब्राह्मण भिछुक का रूप धरकर दान में कर्ण से उनका कवच-कुंडल मांगने पहुँच जाते हैं।
परन्तु पिता सूर्य देव द्वारा दिखाए गए स्वप्न से कर्ण को यह बात पहले ही ज्ञात हो जाती है कि इंद्र देव रूप बदल कर उनसे उनका कवच-कुंडल मांगने आयेंगे। पर फिर भी दानवीर कर्ण ब्राह्मण रुपी इंद्र देव को खाली हाथ नहीं लौटना चाहता थे। कर्ण का नियम था की सुबह की पहर में अगर कोई भी भिक्षुक उसके द्वार पर कुछ मांगने आता तो वे उसे कभी भी खाली हाथ नहीं लौटने देते थे। इसी प्रकार ब्राह्मण के वेश में आए इंद्र की मांग को भी वे पूरी करते हैं। और अपना कवच और कुंडल निकाल कर उन्हें दे देते हैं और कहते हैं.." हे इंद्र देव! मैं आपको पहचान चुका हूं पर आप एक भिक्षुक के रूप में मेरे द्वार पर आये हैं, और मेरे द्वार से आप खाली हाथ चले जाएं ये शोभा तो नही देता। इसलिए दान में मैंने अपने कवच-कुंडल नहीं बल्कि अपने प्राण ही आपको दान में दे दिया, किन्तु क्या आप इसके बदले में मुझे कुछ नहीं देंगे.?" तब इंद्र देव अपने असली रूप में आए और कर्ण की दानवीरता को देख इन्द्र भी भावुक हो उठे। फिर अपनी विवशता को बतलाते हुए इन्द्र ने कर्ण से माफ़ी मांगी और कवच-कुंडल के बदले में कर्ण को एक शक्ति अस्त्र प्रदान किया, जिसका इस्तेमाल सिर्फ एक बार ही किया जा सकता था और उसका कोई काट नहीं था।
युद्ध के दौरान भीम का पुत्र घटोत्कच कौरव सेना को तिनकों की तरह उड़ाए जा रहा था। उसने दुर्योधन को भी लहूलहान कर दिया। तब दुर्योधन सहायता मांगने कर्ण के पास आया। कर्ण शक्तिअस्त्र सिर्फ अर्जुन पर इस्तेमाल करना चाहते थे, पर मित्रता से विवश हो कर उन्होंने वह अस्त्र भीम के पुत्र घटोत्कच पर चला दिया और उसका अंत कर दिया। और इस तरह अर्जुन सुरक्षित हो गए। जबकी कर्ण को भली भांति यह मालूम था कि अगर उन्होंने अर्जुन का अंत नहीं किया तो अर्जुन ही एक ऐसा योद्धा है जो उनका अंत कर देगा और युद्ध के आखिरी में यही हुआ। दानवीर कर्ण का अन्त अर्जुन के हाथों हुआ। और समस्त कौरवों की हार हुई।
महावीर कर्ण को यह बात पता थी की जहां धर्म है वहीं कृष्ण होते हैं और जहां कृष्ण है वहीं विजय भी होती है। कर्ण को मालूम था की इस महाभारत के युद्ध में कौरवों की हार और उनकी मृत्यु निश्चित है, फिर भी कर्ण की विवशता थी की उन्हें दुर्योधन और कौरवों का साथ देना ही पड़ा। कर्ण की महानता इसी बात से मालूम पड़ती है की अपनी मृत्यु का भान होते हुए भी उन्होंने दुर्योधन के एहसान भूल कर ना ही उससे घात किया, और ना ही अपनी दानवीरता से कभी पीछे हटे। और खुशी खुशी अपनी मृत्यु को गले लगा लिया।

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