ओहरे नगापुरियर एका तरा कादर ...Ohre Nagpuriyar

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प्रस्तुत गीत उराँव समुदाय की भाषा कुड़ुख में है। विस्थापन इस गीत का मुख्य विषय है। इस गीत में गायक अपने छोटानागपुर के आदिवासी भाई-बहनों से पूछ रहा है कि वे अपने सोना और हीरा रूपी छोटानागपुर को छोड़कर किधर भागे जा रहे हैं। गायक छोटानागपुर की सुन्दरता का बखान करते हुए कहता है-
हे आदिवासी भाई-बहनो! तुम्हारा देश तुम्हें वापस बुला रहा है।

”जनहित और राष्ट्रीय विकास के नाम पर आदिवासियों का विस्थापन और बिखरावः
यों तो आदिवासी आबादी का देश के समतल और उपजाऊ क्षेत्रों से पलायन और पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्रों में सिमटने का क्रम बहुत पहले ही शुरू हो गया था। किन्तु आजादी के तुरन्त बाद पंचवर्षीय योजनाओं के कार्यान्वयन के साथ वर्तमान पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्रों से भी अचानक और बड़ी संख्या में, कथित राष्ट्रहित में कारखानों, बड़े बाधों के निर्माण और खान-खनिजों की खुदाई की शुरूआत के साथ इन क्षेत्रों से लोगों का पलायन शुरू हुआ। 50 के दशक से लेकर अब तक देश में जितनी भी इस तरह की योजनाएँ कार्यान्वित हुईं,
उनका अधिकांश बोझ आदिवासी क्षेत्रों पर ही पड़ा। यह काम इतनी हृदयहीनता से हुआ कि देश की पूर्ण आदिवासी आबादी (आठ करोड) की एक चौथाई से भी अधिक आबादी अपनी जड़ों से उखाड़ दी गई है और जिसकी कोई चिन्ता देश को नहीं है। यह आबादी आपको देश के महानगरों की परिधियों में बसी झुग्गी-झोपड़ियों में मिलेगी, जिनकी निरा भूखा-नंगा, अनपढ़ और बीमार होने के अलावा और कोई पहचान नहीं है। इन सभी योजनाओं के कार्यान्वयन में एक विस्मयकारी किन्तु सामान्य तथ्य यह है कि इन उपक्रमों की स्थापना में आंकलित आवश्यकता से चार गुनी से भी अधिक आदिवासी जमीन अधिगृहित की गई है, ताकि एक बड़ी बाहरी आबादी को उन अतिरिक्त जगहों पर बसाया जा सके। इस तरह आदिवासी बहुत ही कम समय के अन्दर अपने ही क्षेत्रों में अल्पसंख्यक और विदेशी हो गया और उससे चार गुनी बाहरी आबादी आदिवासी क्षेत्रों में घुस आई। दूसरी ओर अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जब भी आदिवासी खड़ा हुआ, तो देश ने उसे विकास-विरोधी और देश-विरोधी करार दिया। किसी देश के उस समुदाय को, जो अपने को देश का प्रथम नागरिक और देषरक्षा में खड़ा होनेवाला प्रथम सैनिक मानता है, जब देश-विरोधी करार दिया जाता है, तो उस समुदाय के लिए इससे बड़ी अपमानजनक और कष्टदायक बात क्या हो सकती है? किन्तु इसी बहाने देश के विभिन्न क्षेत्रों में आदिवासियों को सेना और पुलिस बल के बनावटी मुठभेड़ों में बड़ी संख्या में आज भी मारा जा रहा है। किसी विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों से लड़ते-लड़ते मर जाना एक बात है, किन्तु यहाँ तो आदिवासी अपने रक्षक बलों द्वारा ही मारा जा रहा है।“

डॉ॰ रामदयाल मुण्डा की पुस्तक ”आदिवासी अस्तित्व और झारखण्डी अस्तिमता के सवाल“ का एक अंश।

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