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Скачать или смотреть अत्रि मुनि कृत श्रीराम स्तुति (Atri muni krta ShriRam stuti)

  • संतोष कुमार बददी वाले
  • 2024-07-24
  • 21
अत्रि मुनि कृत श्रीराम स्तुति (Atri muni krta ShriRam stuti)
राम स्तुतिअत्रि स्तुतिराम जी की स्तुतिरामायण में राम जी की स्तुतिरामचरित मानसराम चरित मानस चौपाईसुन्दर काण्डसुन्दर काण्ड का पाठ
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Описание к видео अत्रि मुनि कृत श्रीराम स्तुति (Atri muni krta ShriRam stuti)

अत्रि मुनि कृत श्रीराम स्तुति

छं. नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं ॥ भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं ॥1॥

भावार्थ : हे भक्त वत्सल ! हे कृपालु ! हे कोमल स्वभाव वाले ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं

भजता हूँ॥1 ॥

निकाम श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं ॥ प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं ॥2॥

भावार्थ : आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥

प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥ निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं ॥3॥

भावार्थ : हे प्रभो! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी, ॥3॥

दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं ॥ मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं ॥4॥
भावार्थ : सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥4॥

X

मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं ॥5॥

भावार्थ : आप कामदेव के शत्रु महादेवजी के द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥5॥

नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं ॥ भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं ॥6॥

भावार्थ : हे लक्ष्मीपते! हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ! हे शचीपति (इन्द्र) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी

सहित आपको मैं भजता हूँ॥6॥ * त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सराः ॥ पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले ॥7॥

भावार्थ : जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के संदेह) रूपी तरंगों से पूर्ण संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पड़ते) ॥7॥

विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांतिते गतिं स्वकं ॥8॥

भावार्थ : जो एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति को (अपने स्वरूप को) प्राप्त होते हैं॥8॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं ॥ जगद्‌गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥9॥

भावार्थ : उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्‌गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और

केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥ *भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥

स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं ॥10॥ भावार्थ : (तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष(अर्थात् उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले), सम (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरंतर भजता हूँ॥10॥

अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥ प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥11॥

X

भावार्थ : हे अनुपम सुंदर ! हे पृथ्वीपति ! हे जानकीनाथ ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न होइए, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए ॥11॥

पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥ व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः ॥


भावार्थ : जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते हैं, इसमें संदेह नहीं ॥12॥

बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥4॥ भावार्थ : मुनि ने (इस प्रकार) विनती करके और फिर सिर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा- हे नाथ! मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी न छोड़े ॥4॥

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