देवगढ़ का किला, छिंदवाड़ा - एक किले की अनकही कहानी
Untold Story of Devgarh Fort - Chhindwara
इस समय देवगढ़ की राजधानी हरिया गढ़ में गौली जाति के रनसूर एवं घनसूर नामक दो भाई शासन करते थे। इनके यहां जाटवा शाह नामक एक गोंड कर्मचारी कार्यरत था, जो काफी शक्तिशाली था। जन श्रुति है कि किले का दरवाजा जिसे कई कर्मचारी मिलकर लगाते थे, उसे जाटवा शाह ने अकेले ही उठाकर लगा दिया। उसकी ताकत के किस्सों से घबराकर रनसूर एवं घनसूर गौली सरदारों ने षड्यंत्र कर, दशहरे के अवसर पर चंडी देवी की पूजा की बलि के अवसर पर, एक लकड़ी की तलवार से भैंसे की बलि का आदेश दिया।
जाटवा शाह ने अपने शक्तिशाली वार से भैंसे की बलि दे दी, एवं तत्काल ही उसी तलवार से रनसूर एवं घनसूर गौली सरदारों की हत्या कर दी। वह लकड़ी की तलवार आज भी ग्राम कटकुही के पास ग्राम उमरघोड़ा विकासखंड जुन्नारदेव में किसी के पास मौजूद है। हरिया गढ़ (वर्तमान हिरदागढ़) के आसपास गांवों में गौलियों की अधिकांश बस्तियां निवासरत हैं, एवं लकड़ी की तलवार की मौजूदगी के किस्से हिरदागढ़ के आसपास के गांवों में प्रचलित होने से, तथा चंडी देेेवी मंदिर आज भी है। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है की जाटवा शाह द्वारा रनसुर एवं घनसूर गौली सरदारों की हत्या की घटना, हरिया गढ़ किले में घटित हुई थी।
जाटवा शाह द्वारा हरिया गढ़ को अपने अधिकार में लेने के कुछ समय बाद, उसने सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से अपनी राजधानी हरिया गढ़ से देवगढ़ स्थानांतरित कर दी, और देवगढ़ से अपना शासन प्रारंभ किया।
इस प्रकार हरियागढ़ व देवगढ़ से गौली राज सत्ता का अंत कर, जाटवा शाह ने गोंड राज सत्ता की स्थापना की। दूरदर्शी, शक्तिशाली एवं कुशल सेनानायक राजा जाटवा शाह ने देवगढ़ किले के अलावा पाटन सावंगी एवं नागपुर आदि किलों का भी निर्माण करवाया। साथ ही साथ उसने चारों को अपने राज्य का विस्तार भी किया। वह सन् 1570 ईस्वी में देवगढ़ की गद्दी पर बैठा। लगभग 10 वर्ष वह अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा रहा। अपने आसपास के क्षेत्र और परगनों को अपने अधीनस्थ कर उनसे कर लेने लगा।
जाटवा शाह ने अपने बाहुबल से गढ़ा शासकों के लगभग आधे क्षेत्र तथा खेरला राज्य के बहुत से क्षेत्र एवं नागपुर तक अपना अधिकार कर लिया था। इस प्रकार जाटवा शाह ने देवगढ़ को एक स्वतंत्र राज्य सत्ता के रूप में स्थापित किया।
राजा जाटवा शाह ने हरिया गढ़ से अपनी राजधानी देवगढ़ स्थानांतरित कर, देवगढ़ के किले का योजनाबद्ध तरीके से निर्माण करवाया एवं किले के चारों तरफ खाइयों का भी निर्माण करवाया।
सन् 1564 ईसवी से गढ़ा का संपूर्ण क्षेत्र सम्राट अकबर द्वारा अपने साम्राज्य के अंतर्गत मिला दिए जाने पर सम्राट अकबर ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण हेतु अपने सूबेदार नियुक्त किए। अबुल फजल लिखता है कि सम्राट अकबर के शासन के 28वें वर्ष सन 1584 ईसवी में देवगढ़ के राजा जाटवा शाह ने मोहम्मद जामिन को मार डाला। मोहम्मद जामिन, मोहम्मद यूसुफ खान का चचेरा भाई था। मोहम्मद जामिन ने बिना सम्राट अकबर की अनुमति के देवगढ़ पर सन् 1584 ई. में आक्रमण कर दिया।
जाटवा शाह ने मोहम्मद जामिन का स्वागत किया। उसको नजर भेंट की एवं भविष्य में उसके आदेशों को पालने का वचन दिया। परंतु मोहम्मद जामिन ने करार का उल्लंघन कर लालच और मोह के मद में अंधा होकर सेना सहित हरिया गढ़ पर आक्रमण कर दिया। और हरिया गढ़ को उसने जमकर लूटा।
शायद सन 1584 ईसवी का यह आक्रमण ही हरिया गढ़ के पतन की कहानी है। हरिया गढ़ लूटने के पश्चात वापस लौटते समय मोहम्मद जामिन ने देवगढ़ को भी जमकर लूटा, और जंगली मार्ग से वापस हुआ। वापसी में जंगली मार्ग में जाटवा शाह ने मोहम्मद जामिन पर आक्रमण कर उसे मार डाला।
राजा जाटवा शाह ने मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर लिया, परंतु गढ़ा शासकों के अधीन वह कभी नहीं रहा। आईने अकबरी में लिखा है कि जाटवा शाह सन् 1590 ई. में राज्य करता था।
खेरला सरकार के वर्णन के साथ ही जाटवा शाह का वर्णन इस प्रकार किया गया है -
"खेरला सरकार के पूर्व में जाटवा शाह नामक जमींदार जिसके पास 2000 घुड़सवार, 50000 पैदल पलटन और 100 हाथी है, निवास करता है। वहां के समस्त निवासी गोंड हैं। इसके देश में जंगली हाथी पाए जाते हैं। यह लोग सदा सर्वदा मालवा के राजाओं के अधीन रहते थे। पहले वह गढ़ा के शासक के अधीन थे।"
"मेमोरीज ऑफ़ जहांगीर" में जाटवा के संबंध में लिखा है कि "सम्राट जहांगीर अपने शासन के 11वें वर्ष सन् 1616 ईस्वी में अजमेर से मालवा आया था। मालवा की सीमा पार करते समय जाटवा शाह ने बादशाह को दो हाथी भेंट स्वरूप दिए।"
स्पष्ट है कि जाटवा शाह एक प्रभावशाली राजा था। इसकी स्वयं की टकसाल थी। जिसमें महाराजा जाटवा शाह के नाम से तांबे के सिक्के ढाले जाते थे। राजा जाटवा शाह ने 50 वर्षों तक अर्थात सन् 1620 ईस्वी तक राज्य किया।
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