‘छाना बिलौरी’ : पहाड़ी महिलाओं का दुख उकेरते गीत की कहानी | गाने के बहाने EPS04 | Baramasa

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‘छाना-बिलौरी, झन दिया बौज्यू लागला बिलौरी काघामा.’ सुप्रसिद्ध गायिका बीना तिवारी जब इस गीत को गा रही होती तो पहाड़ की व्यथा, उसके संघर्ष, संवेदनाएं और सभी के दर्द इसमें समाहित हो जाते. इस गीत ने साठ-सत्तर के दशक में अपने कथ्य, प्रतीक और बिम्बों से पहाड़ की महिलाओं के दर्द का ऐसा चित्र उकेरा जो आज के इस तथाकथित प्रगति के युग तक लोगों को अपनी ओर खींचता है. इस गीत में प्रतीकात्मक रूप से भले ही छाना-बिलौरी गांवों का जिक्र आया हो, लेकिन यह गीत एक तरह से श्रम-शील पहाड़ी महिलाओं के कष्टों का प्रतिनिधि गीत है. छाना-बिलौरी से लेकरअब यह गीत कई माध्यमों से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में गाया-सुना जा रहा है. समय के साथ इसके सुर-साज बदल गए हैं. इसकी यात्रा भी काफी लंबी हो गई है. अब यह बाखलियों से निकलकर बड़े सभागारों में पहुंच गया है और गीत-संगीत के नए प्रयोगों के साथ दुनिया के कई हिस्सों में दस्तक देरहा है. लेकिन बड़ी बात यह है कि इस गीत का भाव नहीं बदला, मर्म नहीं बदला. उसी तरह जैसे सब कुछ बदलने के बाद भी पहाड़ के कष्ट कम नहीं हुए हैं. पहाड़ का हर गांव छाना-बिलौरी है. तब भी था और आज भी है. छाना-बिलौरी किसी गांव के पिछड़ेपन का गीत नहीं है, बल्कि यह पहाड़ की महिलाओं के कष्टों का दस्तावेज है, जिसमें पहाड़ की हर महिला की व्यथा दर्ज है. 'गाने के बहाने' के आज के इस एपिसोड में जानिए इसी गीत के बारे में.


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