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नहीं जानती,
मेरे जीवन का हासिल क्या!
मेरे वे सारे सम्बन्ध जो बन ही नहीं पाए,
वे मुलाकातें जो हुई ही नहीं,
वे रस्ते जो मुझसे छूट गए.
या मैंने छोड़ दिए,
उढ़के दरवाजे़ जो खोले नहीं मैंने,
शब्द जो उचारे नहीं
और प्रस्ताव जो विचारे नहीं-
मेरे सगे थे वही, जिनकी मैं सगी न हुई! करते हैं मेरी परिचर्या इस घने जंगल में वे ही
जब आधी रात को
फूलती है वह कुमुदिनी
मेरी हताहत शिराओं में और टूट जाती है नींद! एक पक्षी चीखता है कहीं विरहदग्ध!
आसमान भी किसी आहत जटायु-सा
बस गिरा ही चाहता है
मरे कन्धों पर,
और उमड़ता है हृदय में सन्नाटा
प्रलयमेघ-सा!...यह कविता साहित्य अकादमी पुरस्कार से समादृत कवयित्री अनामिका के कविता संग्रह 'बन्द रास्तों का सफ़र' से ली गई है. अनामिका की कविताएं प्रतिक्रियाओं से नहीं बनतीं, संदेह, चलते-फिरते- जीते लोगों के जीवन-संवाद से निकलती हैं. इस संग्रह में हमें साधारण लेकिन चेतना समृद्ध पात्र मिलते हैं. हर कविता का एक भौतिक संसार है जो हमें वापस अपने आसपास के जीवन की तरफ़ देखने को उकसाता है. फिर चाहे वह नंगे पैरों भुट्टे बेचनेवाली बच्ची हो जिसके पीछे कवि का हृदय जूता होकर चलता है, महिषासुर के नाखून काटकर, नहला- धुलाकर, दफ़्तर भेजनेवाली 'घरेलू दुर्गा' स्त्री हो, फ़ोन पर बातचीत करतीं, अपने जीवन को थाहती वृद्धा बहनें हों, कोरोना के आइसोलेशन वार्ड के भीतर की दुनिया के लोग हों, पैदल घर जाते मज़दूर, आंदोलन करते किसान हों, कश्मीर में अपनी विरासत को उजड़ते सूखते देखते बच्चे-बूढ़े हों, हिंसक पौरुष के सम्मुख चीखती आसिफ़ा हो या रीतिकालीन काव्य- समय से बहस करती आधुनिक स्त्रियां, यहां पात्रों की एक महाकाव्यात्मक मौजूदगी है. भाषा का व्यवहार अनामिका के यहां एक स्वतंत्र घटक के रूप में हमेशा मौजूद रहता है. वह इन कविताओं में और सधकर आया है. भाषा उनके लिए सिर्फ़ कहने का साधन-भर नहीं, स्वयं एक चरित्र भी है जिसकी एक भुजा लोक से जुड़ती है तो दूसरी कवि के अपने ध्वनि-बोध से. उनकी यह विशेषता इस संग्रह में और निखरकर आई है. इसीलिए आज बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश ने अनामिका' के कविता संग्रह 'बन्द रास्तों का सफ़र' पर चर्चा की है. इस कृति को राजकमल पेपरबैक्स ने प्रकाशित किया है. 151 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 199 रुपए है.
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