क्या प्राचीन निर्माता जियोपॉलीमर तकनीक का उपयोग कर रहे थे? आइए जानते हैं कि इन महान संरचनाओं का निर्माण कैसे हुआ। क्या प्राचीन निर्माताओं ने इस असाधारण काम को अंजाम देने के लिए उन्नत तकनीक और उच्च प्रौध्यौगिकी का प्रयोग किया था ? 🤔🤔
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00:00 - परिचय
00:42 - जटिल डिज़ाइन!
01:43 - एक अजीब सा लेटिस वर्क!
03:07 - C.N.C मशीन जैसी मशीन का प्रयोग?
03:52 - शेरों की शृंखला को देखिए..
04:57 - ड्रिलिंग मशीन का प्रयोग?
06:08 - आधुनिक समय में जाली बनाने का तरीका!
08:00 - जियो पॉलीमर तकनीक!
09:35 - कैलाश नाथर मंदिर में मिले जियो पॉलीमर के सबूत!
12:10 - 5 असफल प्रयास!
13:46 - तैरने वाले पत्थर!
14:39 - निष्कर्ष
हैलो दोस्तों, आज हम कई सदियों पहले भारत में प्रयोग की गई एक बहुत अलग तकनीक को देखने जा रहे हैं | ये प्राचीन स्थान वारंगल किले के नाम से जाना जाता है और यह एक बहुत बड़ा स्थान है, जो कि अब पूरी तरह नष्ट हो चुका है | आप देख सकते हैं कि यह बिल्कुल भी एक किले जैसा नहीं दिखता है, पर इसे एक किला इस लिए कहा जाता है क्योंकि, इसके चारों ओर दुर्गों और सुरक्षा प्रणाली के कई स्तर हैं, पर उनकी परिधि(सर्कमफेरेंस) बहुत बड़ी है इसलिए हम उन्हें यहां से देख नहीं सकते |
चलिए आज , विशेष रूप से देखते हैं कि ये चट्टानें कैसे काटी गयी थीं | जब आप पहले इस जगह पर प्रवेश करते हैं, तो यहां चारों ओर बिखरी हुई, ढेर लगी हुई हजारों चट्टानों को देख कर आश्चर्यचकित रह जाते हैं | जब आप इन चट्टानों का निरीक्षण नज़दीक से करते हैं, आप आश्चर्यचकित रह जाते हैं क्योंकि... जरा देखिए हर एक ब्लॉक कितना जटिल है | यह शानदार संरचना कैसे बनाई गई थी ?
पुरातत्वविद और इतिहासकार इस बात को लेकर अटल हैं और दावा करते हैं कि ये सभी संरचनाएं, कुछ और नहीं बल्कि केवल प्राथमिक औजारों और कठिन परिश्रम से बनाई गयी थीं | क्या यह सच है ? या फिर प्राचीन निर्माताओं ने इस असाधारण काम को अंजाम देने के लिए उन्नत तकनीक और उच्च प्रौध्यौगिकी का प्रयोग किया था ? चलिए इन पत्थर की कलाकृतियों पर नजर डालते हैं |
इनके ऊपर एक अजीब सा लेटिस वर्क किया गया है, जिसे भारत में जाली कहा जाता है | हर एक जाली वाले पत्थर में बहुत से छेद होते हैं और ये एक रोशन-दान या खिड़की जैसे दिखता हैं, पर ये सीधी दरारें या गोल छेद नहीं हैं | हर छेद में कई किनारे हैं | पर यह असली समस्या नहीं है, एक कई किनारे वाले छेद को साधारण औजारों से बनाना बिल्कुल संभव है | समस्या यह है कि, ये सभी बहुत सारे किनारों वाले छेद एकदम सटीकता के साथ एक दूसरे के समान हैं |
विशेषज्ञ हैरान हैं कि, इनके सभी आयाम इतनी सफाई से एक जैसे कैसे हैं, वे एक मिली मीटर तक एक समान हैं | अगर हम इनका ध्यान से अध्ययन करें, तो यह डिज़ाइन ऐसे लगते हैं जैसे उन्हें किसी कुकी कटर जैसे मशीनी उपकरण से बनाया गया हो | विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसी सटीकता मानवीय रूप से संभव नहीं है | क्या प्राचीन निर्माणकर्ताओं ने इन संरचनाओं के निर्माण के लिए किसी कुकी कटर जैसे उपकरण का प्रयोग किया था ?
भू-विज्ञानियों ने इन संरचनाओं का पूरी तरह निरीक्षण नहीं किया है, पर वे सोचते हैं कि ज्यादातर जाली काले बसाल्ट से बनी हैं, जो की बहुत कठोर चट्टान है | प्राचीन तकनीक तो भूल ही जाएं, हमारे पास आज भी ऐसे उपकरण नहीं है जो बसाल्ट जैसे कठोर पत्थर पर बिल्कुल एक जैसे आकार काट सकें | हमें ऐसे एक जैसे छेद काटने के लिए कम्प्यूटर और C.N.C. मशीन की जरूरत पड़ेगी | क्या प्राचीन निर्माणकर्ताओं ने C.N.C मशीन जैसी किसी चीज का प्रयोग किया था ?
या फिर उन्होंने किसी और तकनीक का प्रयोग किया था ? पर यह एक सा दिखने वाला डिज़ाइन बस छेदों तक सीमित नहीं है, यह दूसरे ब्लॉक्स में भी दिखता है उदाहरण के लिए इन शेरों की शृंखला को देखिए - यहां इस ब्लॉक में बहुत सारे शेर हैं, पर अगर आप उनका ठीक से अध्ययन करते हैं, तो वे सब एक समान हैं | याद रखिए, कि यह स्थान दिल्ली के सुल्तान के द्वारा धार्मिक कारणों से नष्ट कर दिया गया था, और इतिहासकार पुष्टि करते हैं कि यह पत्थर लगभग 700 सालों से धूप और बारिश में पड़े हुए हैं |
पर 700 सालों के क्षरण, पतन और जानबूझकर किये गये विनाश के बाद भी ,हम सिर्फ मामूली नुक्सान ही देख सकते हैं | इनके बीच की त्रिआयामी दूरी को देखिए | क्या मानवीय रूप से इन जगहों के नीचे नक्काशी करना संभव है, या फिर वो इनग्रेविंग, कार्विंग और ड्रिलिंग मशीन जैसी मशीनों का प्रयोग कर रहे थे? इतिहासकार और पुरातत्वविद इस बात की पुरजोर बहस करते हैं कि, प्राचीन निर्माताओं ने हर चीज छेनी और हथौड़ी से बनाई थी और उन्होंने रोटेटिंग मशीन का प्रयोग नहीं किया था, पर यह जगह इस बात के ठोस सुबूत देती है कि प्राचीन समय में ड्रिलिंग मशीन का प्रयोग हुआ था |
यहां हम एक सटीकता से ड्रिल किया हुआ छेद देख सकते हैं | क्या ये छेनी के निशान जैसे दिखते हैं? आप यहां एक समान केंद्र बिंदु वाले, ड्रिल से बने हुए गोले को देख सकते हैं | पुरातत्वविद पुष्टि करते हैं , कि ये वास्तव में प्राचीन औजारों के निशान हैं | यह ऐसा 700 सालों तक बारिश और धूप में रहने के बाद दिख रहा है, और देखिए फिर भी ये कितना बढ़िया दिखता है |
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