भारतीय संस्कार, हमारी परम्पराएँ केवल इस जीवन के लिए नहीं बनीं, यह इस जन्म से, धरती से आकाश, अगले और पिछले सारे जन्मों के लिए बनीं हैं। जब तक कि हम जन्मों से मुक्त ना हों, अपने कर्मों के फल भोग ना चुके हों जीवन के सुख-दुःख से हम बच नहीं सकते।
इसी महान भारतीय परम्परा में आता है पितृ-पक्ष यानी कि श्राद्ध। पितृ पक्ष श्राद्ध हर साल आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आरंभ होता है और अमावस्या की तिथि तक रहता है। सूर्य के कन्या राशि में रहते समय आश्विन कृष्ण पक्ष पितर पक्ष कहलाता है। जो इन दिनों अपने पितरों का श्राद्ध और तर्पण करता है वो अपने पित्तरों को तृप्त कर उनकी आत्मा की शांति करता है।
क्यों है यह पितृ पक्ष का श्राद्ध इतना महान? क्या है इसका महत्व; कैसे आप अपने पितरों को मुक्त करवा सकते है. और अपना जीवन शांतिमय कर सकते हैं। आज मैं आपको यही बताने जा रहा हूँ। अपने पित्तरों के प्रति समर्पण और श्रद्धा दिखा अपने आप को को दुखों से मुक्त कर सकते हैं।
यदि हमारे पूर्वज और उनके पूर्वज ना होते तो हम भी नहीं होते - कुछ भी नहीं होता। तो जिन की वजह से हम हैं क्या उनके प्रति हमारा कोई दायित्व नहीं! अपनी देह की मृत्यु के बाद जब वो हमें छोड़ के गए तो क्या पूरी तरह से ही चले गए; या अपने दुःख और अपमान; अपनी मोह और भावनाओं के कारण वो हमसे अभी भी जुड़े हुए हैं? क्या है इसका कारण?
ब्रह्म पुराण में पितृपक्ष को लेकर पूरी जानकारी दी गयी है। कि पितृपक्ष के समय में यमराज आत्मा को मुक्त कर देते हैं ताकि यह आत्माएँ अपने परिजन, अपने रिश्तेदारों के बीच 15 दिनों तक रह कर श्राद्ध-तर्पण का अन्न जल, इत्यादि ग्रहण कर तृप्त हो सकें.
जन्मों-जन्मों का बंधन जो हमारे पितरों के साथ है.एक जीवन में ख़त्म नहीं हो सकता। इसीलिए पितृपक्ष के श्राद्ध में हम अपने पूर्वजों अर्थात् पुरखों को याद करते हैं। संस्कार और नियम अनुसार दान-पुण्य और पूजा पाठ कर श्राद्ध करते हैं, उन्हें अन्न और जल देते हैं कि वो हमारी भूलों को भूल हमें आशीर्वाद दें।
सनातन धर्म कहता है कि ईश्वर एक है, लेकिन पितृ कई होते हैं। मृत्यु के बाद, स्वाभाविक है कि, यह पितृ हमें दिखते नहीं, पर अदृश्य रूप से कहीं ना कहीं यह हमारी दुनिया के किसी आभा-मंडल में उपस्थित रहते हैं। वहीं से यह हमारी सहायता करते हैं। मान्यता है कि मृत्यु के बाद यदि पूरी विधि से श्राद्ध ना किया जाए तो मारने वाले की आत्मा की मुक्ति नहीं होती। अकाल अथवा बिना-समय मृत्यु में भी ऐसा ही होता है। जो आत्मा इस जगत और उस जगत, धरती और आकाश के बीच में ही कहीं रह जाती है। पितृपक्ष में उस आत्मा के लिए श्राद्ध करने का यही सबसे बड़ा कारण है; इससे आत्मा को मुक्ति मिलती है, और हमारे पूर्वजों के प्रति आभार और सम्मान का भाव प्रकट होता है।
यह हमारा पहला जन्म नहीं, हम कई जन्मों से उनसे बंधे हुए हैं। यदि कहीं, किसी पितृ के सम्मान या उसकी प्रति पूजा में कोई कमी रह गयी हो तो उसे ही पितृ-दोष के रूप में हम अपने इस जीवन में झेलते हैं। अकाल मृत्यु के बाद भी ना जाने कितनी ही पीढ़ियों को पितृ-दोष का दुख झेलना पड़ता है। कुंडली में आया पितृ-दोष भी यही होता है।
सनातन धर्म में इस दोष को बहुत बड़ा माना गया है। कहते हैं कि इस दोष के कारण कई दुखों को झेलना पड़ता है। जैसे कि संतान का ना होना, नौकरी या काम में नुक़सान उठाना, घर में हमेशा झगड़े की स्थिति रहना, कोई ना कोई बीमारी या परेशानी का होते रहना या फिर विवाह ना होना, इत्यादि, और यह सब दोष दूर होते हैं पितृ-श्राद्ध से।
पितृ पक्ष के पूरे 15 दिन, पूर्णिमा से अमावस्या तक हर दिन के श्राद्ध का अपना महत्व होता है। कई ऐसे पवित्र स्थान हैं जहां पितरों के प्रति विधिवत मुक्ति कर्म किए जाते है। जैसे हरिद्वार, उज्जैन, या काशी इत्यादि। वैसे विष्णु पुराण में गया जी को उत्तम माना गया, कहते हैं कि गया जी में किए हुए पितृ तर्पण से पितरों को मोक्ष प्राप्त होता है।
श्राद्ध में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज सबसे आवश्यक विधियाँ है। चावल या फिर जौ के आटे में दूध और तिल को मिलाकर उस आटे को गूथ उसका गोला बनाया जाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा यानि कि हरी घास और सफेद फूल मिलाकर इस सब का विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है. और फिर इस सब के बाद होता है ब्राह्मणों का भोज।
पूजा विधि में पीपल के वृक्ष पर दीप जलाना, नाग स्तोत्र, महामृत्युंजय मंत्र, रुद्र सूक्त या पितृ स्तोत्र और नवग्रह स्तोत्र के पाठ की भी मान्यता है। अपने इष्ट देवता या कुल देवता की पूजा से भी पितरों को शांति मिलती है और पितृदोष का शमन होता है। पितरों के नाम से वृक्ष लगवाने से, जरूरतमंदों को सहायता करने से, ब्राह्मणों को सम्मान के साथ खाना खिलाने से भी पितरों की आत्मा को शांति मिलती है।
कहते है कि पितृ पक्ष में आपके पूर्वज किसी भी रूप में आपके सामने आ सकते हैं। इसीलिए घर आए किसी भी अतिथि का अनादर नहीं करना चाहिए। यही कारण है कि कौवों को हमारे पितरों का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए घर की छत पर अन्न और जल रखा जाता है कि कौवे आ कर उसे ग्रहण करें। गरुड़ पुराण के अनुसार कौवा यमराज का संदेश वाहक है। वही यमराज जिसके हाथों हमारे पूर्वजों को मुक्ति मिलनी है। कहते हैं कि कौवे को यम से वरदान मिला था कि उसे दिया गया भोजन पूर्वजों की आत्मा को शांति देगा। तब से इस प्रथा को हम हज़ारों सालों से मानते और मनाते आ रहे हैं।यही है हमारी परम्परा; कि जहां ब्राह्मण भोज आवश्यक है वहीं कौवे को भोजन देना भी मुक्ति का साधन माना जाता है।
श्रेय: शैलेंद्र भारती
Disclaimer: यहाँ मुहैया सूचना सिर्फ मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. यहाँ यह बताना जरूरी है कि तिलक किसी भी तरह की मान्यता, जानकारी की पुष्टि नहीं करता है. किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें.
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