वर्ण व्यवस्था का इतिहास: प्राचीन वेदों में वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म पर आधारित थी, लेकिन 'मध्यकाल' में यह जन्म आधारित हो गई, जिसने जाति प्रथा को जन्म दिया।
मध्यकालीन है जब मुग़ल या इस्लाम आक्रांताओं का शासन था।
जब देश का शासक होता है तो जनता अपनी मर्जी से कोई व्यवस्था प्रारंभ नहीं कर सकती।
मध्य काल में अगर जाति व्यवस्था शुरू हुई तो ये जनता के वजह से शुरू नहीं हुई।
उस समय प्रशासनिक व्यवस्था ही ऐसी रही होगी, कि जनता को वर्ण व्यवस्था को छोड़कर जाति व्यवस्था को अपनाना पड़ा।
इस जाति व्यवस्था के आधार पर ही मध्यकाल में नागरिकों को समाजिक रूतबा या प्रतिष्ठा, रोजगार और समाजिक और राजनैतिक सुरक्षा और सहयैग मिलता थी, तो स्पष्ट है कि ये जाति व्यवस्था जनता या ब्राह्मणों की लागु की गयी नहीं थी बल्कि मुस्लिम शासकों की सख्त जातिवादी कानून का परिणाम था।
मेरा मानना है, कि यह वर्ण का जाति में परिवर्तन जनता की मर्जी से नहीं, बल्कि उस समय के प्रशासनिक और राजनीतिक दबावों के कारण ही हुआ था।
प्राचीन वेदों (विशेष रूप से ऋग्वेद) में वर्ण व्यवस्था गुण, कर्म, और योग्यता पर आधारित थी—ब्राह्मण (ज्ञान), क्षत्रिय (रक्षा), वैश्य (व्यापार), और शूद्र (सेवा)। यह एक लचीला ढांचा था, जो व्यक्ति की क्षमता और कार्य के आधार पर काम करता था।
मध्यकाल (इस्लामिक इंवासन पीरियड) लगभग 8वीं से 18वीं सदी) में, जब इस्लामी शासकों (दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य) का भारत पर शासन था, वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित हो गई और इससे जाति प्रथा का विकास हुआ। यह जनता की पसंद नहीं, बल्कि शासकों की नीतियों का परिणाम था।
मध्यकालीन शासन और जाति प्रथा:
मध्यकाल में नागरिकों की सामाजिक स्थिति, रोजगार, और प्रतिष्ठा जाति व्यवस्था पर निर्भर हो गई थी। मुगल शासकों ने सामाजिक ढांचे को अपने प्रशासनिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए, अबुल फजल के "आइन-ए-अकबरी" में जाट जैसे समुदायों की भूमिका (किसान, योद्धा, और कर संग्रहकर्ता) को दर्शाया गया है, जो एक ही जाति के भीतर विविध व्यवसायों को दिखाता है।
मुस्लिम शासकों ने जजिया कर और धार्मिक आधार पर कर संग्रहण के लिए हिन्दू समाज को व्यवस्थित करने की जरूरत महसूस की। इसकी वजह से वर्ण (जीवन की व्यवसायिक अवस्था) व्यवस्था को जाति (जन्म से) कठोर बनाया गया, और जन्म आधारित जाति प्रथा मजबूत हुई।
तो ये स्पष्ट है कि यह मुगल शासकों की सख्त नीतियों का परिणाम था, न कि ब्राह्मणों मर्जी।
शासक और जनता की भूमिका:
देश का शासक होने के कारण जनता अपनी मर्जी से कोई नई व्यवस्था शुरू नहीं कर सकती। मध्यकाल में, हिन्दू समाज मुस्लिम शासकों के अधीन था, और उनकी नीतियाँ (जैसे जजिया, भूमि कर, और सामाजिक नियंत्रण) ने स्थानीय ढांचे को प्रभावित किया। इससे वर्ण व्यवस्था में लचीलापन कम हुआ और जाति प्रथा कठोर हो गई।
इतिहासकार इरफान हबीब और रिचर्ड ईटन के अनुसार, मुस्लिम शासकों ने सामाजिक stratification (पहचान) को कर संग्रहण और शासन के लिए उपयोग किया, जिसने जाति प्रथा को और मजबूत किया। यह जनता की स्व-इच्छा से अधिक शासकों की रणनीति थी।
ऐतिहासिक संदर्भ और तथ्य:
वर्ण से जाति का संक्रमण: वर्ण व्यवस्था प्राचीन काल में थी, लेकिन मध्यकाल में यह जन्म आधारित हो गई। 12वीं सदी से शुरू होकर, जब तुर्की और अफगान शासकों ने भारत पर कब्जा किया, और समाज को क्रियाशील भुमिका के आधार पर जिसको जो काम करते देखा-
जिसको पूजा करते और शिक्षण देते देखा उसे ब्राह्मण वर्ण को ब्राह्मण जाति बना दिया।
सुरक्षा करते देखा तो उस क्षत्रिय वर्ण को क्षत्रिय जाति बना दिया।
व्यापार करने वालों को उस वैश्य वर्ण के लिए वैश्य जाति सुनिश्चित कर दी।
और साफ-सफाई और सेवा करने वाले शुद्र वर्ण को हमेशा के लिए शुद्र जाति में कैद कर दिया,
और विभाजन को बनाए रखने के लिए नीतियां बनाई और इनसेंटिव देनी शुरू की।
आर्थिक लाभ देखकर, मुगल प्रदत्त सुविधाएं पा के लोग खामोश रहे।
मुगल नीतियाँ:
अकबर जैसे शासकों नेभी जमींदारी और कर-प्रणाली ने जाति आधारित ढांचे को बनाए रखा। शूद्र और निम्न जातियों (शुद्र वर्ण) को श्रमिक के रूप में इस्तेमाल किया गया।
ब्रिटिश प्रभाव:
मध्यकाल के बाद ब्रिटिश शासन (18वीं-20वीं सदी) ने जाति प्रथा को औपचारिक रूप दिया, जैसे 1901 की जनगणना में जातियों को दर्ज करना, जो इसे और स्थायी बना दिया।
वर्ण व्यवस्था का इतिहास:
प्राचीन वेदों में वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म पर आधारित थी, लेकिन मध्यकाल में यह जन्म आधारित हो गई, जिसने जाति प्रथा को जन्म दिया।
स्पष्ट होता है जातिवाद के लिए ब्राह्मण पर लांछन लगाने की बात लोगों को खुद अपनी कमजोर की ओर उंगली करने को बाध्य करता है।
स्पष्ट है जाति व्यवस्था मुगलों की प्रशासनिक नीति
जिम्मेदारी थी जिसे आधार बनाकर अंग्रेज़ ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई।
Информация по комментариям в разработке