सांप्रदायिकता धर्म नहीं? समाज पर कलंक है, कुछ ताकत देश को कर रही कमजोर? स्वामी आदित्यवेश
सांप्रदायिकता, मानव समाज की वह विषबेल है जो न केवल हमारी सह-अस्तित्व की भावना को नष्ट करती है, बल्कि हमारी सभ्यता की जड़ों को भी खोखला कर देती है। यह एक ऐसा सामाजिक रोग है, जो धर्मों की विविधता को संघर्ष का कारण बना देता है। विशेष रूप से भारत जैसे बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक देश में इसकी उपस्थिति गहरी चिंता का विषय है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जहाँ हमारे वेद कहते हैं — "एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति" — सत्य एक है, उसे ज्ञानीजन विभिन्न नामों से पुकारते हैं — वहीं आज समाज में नाम और पहचान के आधार पर वैमनस्य फैलाया जा रहा है।
आज धर्म राजनीति का हथियार बन चुका है। जनभावनाओं को भड़काकर, नेताओं ने समाज के एक वर्ग को दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। मीडिया की सुर्खियाँ, टीवी चैनलों की बहसें, सोशल मीडिया की टिप्पणियाँ — इन सबमें धार्मिक विद्वेष को परोसा जा रहा है। इससे आम जनमानस में भ्रम पैदा होता है कि धर्म एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु दुर्भाग्य यह है कि जनता को इन शिक्षाओं से दूर रखा गया और उन्हें उन बातों में उलझा दिया गया जो केवल अलगाव को बल देती हैं।
आज समाज में सांप्रदायिकता की वजह से सामाजिक सौहार्द टूट रहा है। मंदिर और मस्जिद के झगड़ों ने मोहल्लों को बाँट दिया है। लोग अपने बच्चों को धर्म के नाम पर भय और घृणा सिखा रहे हैं। इसका सबसे गहरा असर बच्चों और युवाओं पर पड़ रहा है, जिनका मन निर्मल और कोमल होता है। वेदों में कहा गया है — "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्" — मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन एक हों। यह कोई साधारण प्रार्थना नहीं, यह मानवता के सामूहिक कल्याण की भावना है, जिसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है।
धार्मिक संस्थाओं, शिक्षकों, संतों, गुरुओं, इमामों की नैतिक जिम्मेदारी है कि वे केवल पूजा-पद्धतियों तक सीमित न रहें, बल्कि समाज में भाईचारे और शांति का प्रचार करें। यदि वे समझाएं कि धर्म हिंसा, भेदभाव या घृणा की अनुमति नहीं देता, तो बहुत कुछ सुधर सकता है। लेकिन जब यही धार्मिक प्रतिनिधि किसी एक पंथ के पक्षधर बन जाएँ और दूसरे की निंदा करें, तो संतुलन बिगड़ता है। धर्म जब स्वार्थ से मुक्त होता है तभी वह धर्म होता है, अन्यथा वह केवल एक आवरण बनकर रह जाता है।
आज आवश्यकता है वैदिक दृष्टिकोण को पुनः अपनाने की। वेद केवल यज्ञ और मंत्रों का संग्रह नहीं, वे जीवन जीने की कला सिखाते हैं। वे समस्त मानवता को एक मानते हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना केवल आदर्श नहीं, व्यवहार बननी चाहिए। हमें अपने बच्चों को सिखाना चाहिए कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई — ये केवल सामाजिक पहचानें हैं, आत्मा तो एक है। आत्मा का न कोई धर्म होता है, न कोई जाति, न कोई भाषा। जैसे सूर्य सबको समान रूप से प्रकाश देता है, वैसे ही सत्य और धर्म सभी के लिए समान होते हैं।
आज समय आ गया है कि हम सांप्रदायिकता की बीमारी का इलाज करें। और यह इलाज केवल कानून या प्रशासन के बल पर नहीं होगा। यह तब होगा जब हर व्यक्ति मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से स्वयं को बदलेगा। जब वह यह निर्णय लेगा कि वह केवल अपने धर्म का नहीं, बल्कि समस्त मानवता का हितचिंतक बनेगा। इसके लिए हमें अपने भीतर के शत्रुओं से युद्ध करना होगा — अहंकार से, असहिष्णुता से, अज्ञान से मुक्ति पानी होगी।
यदि धर्म हमें जोड़ने के लिए है, तो फिर वह विभाजन का कारण कैसे बन सकता है? जब हम ईश्वर को एक मानते हैं, तो फिर उसके बनाए मनुष्यों को अनेक वर्गों में कैसे बाँट सकते हैं? ईश्वर तो सभी का है, चाहे वह किसी भी नाम से पुकारा जाए। इसलिए वेद कहते हैं — "इन्द्रं मित्रं वरुणं अग्निम् आहु:... एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति"। यही वेदों का संदेश है — सबको एक दृष्टि से देखो, सबका सम्मान करो, सबमें स्वयं को देखो।
भारत को फिर एक ऐसा राष्ट्र बनाना होगा जहाँ विविधता में एकता कोई नारा न रहे, बल्कि जीवन की सांस बन जाए। इसके लिए हमें आत्मिक समता का भाव विकसित करना होगा। समाज में संवाद और सद्भाव का वातावरण बनाना होगा। धार्मिक आयोजनों को आपसी मिलन का अवसर बनाना होगा, न कि टकराव का कारण। सोशल मीडिया से लेकर गली-मोहल्लों तक हमें एक सकारात्मक संस्कृति का निर्माण करना होगा — जो एकता, प्रेम और सहिष्णुता का संदेश दे।
इस दिशा में युवाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। उन्हें समझना होगा कि धर्म का सार क्या है और सांप्रदायिकता किस प्रकार उन्हें विभाजित कर रही है। जब युवा जागेंगे, तो समाज जागेगा। समाज जागेगा, तो राजनीति बदलेगी। और जब राजनीति बदलेगी, तभी एक नया भारत उभरेगा — एक ऐसा भारत जो वेदों के गौरव को आत्मसात कर आधुनिक युग की चुनौतियों के अनुरूप सर्वधर्म समभाव की नींव पर खड़ा होगा।
इस महान कार्य की प्रतीक्षा किसी एक संस्था, किसी एक धर्म, किसी एक जाति से नहीं की जानी चाहिए। हर व्यक्ति को अपने स्तर से आरंभ करना होगा — अपने घर से, अपने परिवार से, अपने विचारों से। जब विचार बदलेंगे, तभी व्यवहार बदलेगा। जब हम भीतर से भेदभाव, घृणा और पूर्वाग्रह को निकालकर सच्चे धर्म की भावना को स्थान देंगे, तभी हम कह सकेंगे — हमने सांप्रदायिकता का अंत कर दिया है। और यही होगी सच्ची आराधना — न केवल ईश्वर की, बल्कि सम्पूर्ण मानवता की भी।
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