Raat se dari thi voh | Shruti Bhadri

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About the poet:

Shruti Bhadri is an MBBS student and a very enthusiastic poet, loves to portray her thoughts through her pen. Reciting this poem in social house was a dream for her since many years, on 4th of December 2021 she fulfilled it on the open mic of Ibtidaa by The Social House.

About the poem:

The poem is about the situation of girls in our society which is very beautiful portrayed by Shruti. How the situation is worsening for them even in today's "modern" world.

Poem:

रात से डरी थी वो

सुबह की कली थी वो रात से डरी थी वो
दरिंदो की पनाह में निगाहों को झुकाती थी
उनकी निगाहों से खुद ही सहम वो जाति थी
सुबह की कली थी वो रात से डरी थी वो।

बस में तड़पी थी वो रास्ते में जली थी वो
अरे जंगल तो छोड़ो खून से मंदिर में सनी थी वो
सुबह की कली थी वो रात से डरी थी वो।

सह नहीं पाई वोह, रह नही पाई वो
इस सागर रूपी दुनिया में, बह नही पाई वो
जो दिल में थी आरजू, कह नहीं पाई वो
सुबह की कली थी वो रात से डरी थी वो।

अरमानों को गवाकर अशको को संभालकर
सिर से सीना ढकाकर चली जा रही थी वो
होश न आवाज था, शर्म का बुखार था
रोज एक नई लज्जा से मारी जा रही थी वो
सुबह की कली थी वो रात से डरी थी वो।

प्यार की हकदार थी, हवस की शिकार थी
रुह की तलाश में जिस्म नोंचवा रही थी वो
सुबह की कली थी वो रात से डरी थी वोह।

श्रुति भद्री
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