Kalyug Kalki Avtar |कलयुग कल्कि । Ashutosh Rana |Talk with Robin | Lyrical Poem Kalyug Kalki Avtar |

Описание к видео Kalyug Kalki Avtar |कलयुग कल्कि । Ashutosh Rana |Talk with Robin | Lyrical Poem Kalyug Kalki Avtar |

Credit By : Lyrics - Ashutosh Rana
Credit By : Voice - Ashutosh Rana
Editing : R😊BIN


अब अशुद्धि के लिए मैं शुद्ध होना चाहता हूँ।
अब कुबुद्धि को लिए मैं बुद्ध होना चाहता हूँ॥
चाहता हूँ इस जगत में शांति चारों ओर हो।
इस जगत के प्रेम पर मैं क्रुद्ध होना चाहता हूँ॥
चाहता हूँ तोड़ देना सत्य की सारी दीवारें।
चाहता हूँ मोड़ देना शांति की सारी गुहारें॥
चाहता हूँ इस धरा पर द्वेष फूले और फले।
चाहता हूँ इस जगत के हर हृदय में छल पले॥
मैं नहीं रावण कि,तुम आओ और मुझको मार दो।
मैं नहीं वह कंस,जिसकी बाँह तुम उखाड़ दो॥
मैं जगत का हूँ अधिष्ठाता,मुझे पहचान लो।
हर हृदय में-मैं बसा हूँ, बात तुम ये जान लो॥
अब तुम्हारे भक्त भी मेरी पकड़ में आ गए हैं।
अब तुम्हारे संतजन बेहद अकड़ में आ गए हैं॥
मारना है मुझको तो,पहले इन्हें तुम मार दो।
युद्ध करना चाहो तो,पहले इन्हीं से रार लो॥
ये तुम्हारे भक्त ही अब घुर विरोधी हो गए हैं।
ये तुम्हारे संतजन अब विकट क्रोधी हो गए हैं॥
मैं नहीं बस का तुम्हारे राम,कृष्ण और बुद्ध का।
मैं बनूँगा नाश का कारण-तुम्हारे युद्ध का॥
अब नहीं मैं ग़लतियाँ वैसी करुं,जो कर चुका।
रावण बड़ा ही वीर था,वो कब का छल से मर चुका॥
तुमने मारा कंस को कुश्ती में सबके सामने।
मैं करुंगा हत तुम्हें बस्ती में सबके सामने॥
कंस-रावण-दुर्योधन तुमको नहीं पहचानते थे।
वे निरे ही मूर्ख थे बस ज़िद पकड़ना जानते थे॥
मैं नहीं ऐसा,जो छोटी बात पर अड़ जाऊँगा।
मैं बड़ा होशियार ख़ोटी बात कर बढ़ जाऊँगा॥
अब नहीं मैं जीतता,दुनिया किसी भी
देश को।
अब हड़प लेता हूँ मैं,इन मानवों के वेश को॥
मैंने सुना था तुम इन्हीं की देह में हो वास करते।
धर्म-कर्म,पाठ-पूजा और तुम उपवास करते॥
तुम इन्हीं की आत्मा तन-मन सहारे बढ़ रहे थे।
तुम इन्हीं को तारने मुझसे भी आकर लड़ रहे थे॥
अब मनुज की आत्मा और मन में मेरा वास है॥
अब मनुज के तन का हर इक रोम मेरा दास है॥
काटना चाहो मुझे,तो पहले इनको काट दो।
नष्ट करना है मुझे तो पहले इनका नाश हो॥
तुम बहुत ही सत्यवादी, धर्मरक्षक,शिष्ट थे।
इस कथित मानव की आशा,तुम ही केवल इष्ट थे॥
अब बचो अपने ही भक्तों से, सम्हालो जान को।
बन सके तो तुम बचा लो अपने गौरव- मान को॥
अब नहीं मैं-रूप धरके, सज-सँवर के घूमता हूँ।
अब नहीं मैं छल कपट को सर पे रख के घूमता हूँ॥
अब नहीं हैं निंदनीय चोरी डकैती और हरण।
अब हुए अभिनंदनीय सब झूठ हत्या और दमन॥
मैं कलि हूँ-आचरण मेरे तुरत धारण करो।
अन्यथा अपकीर्ति कुंठा के उचित कारण बनो॥

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