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• श्री शुक्ल यजुर्वेद। रुद्राष्टाध्यायी। पाठ... 8
शुक्ल यजुर्वेद रुद्राष्टाध्यायी 1 अध्याय स्वर सहित।
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रुद्राष्टाध्यायी यजुर्वेद का अंग है और वेदों को ही सर्वोत्तम ग्रंथ बताया गया है। वेद शिव के ही अंश है वेद: शिव: शिवो वेद:। अर्थात् वेद ही शिव है तथा शिव ही वेद हैं, वेद का प्रादुर्भाव शिव से ही हुअा है। भगवान शिव तथा विष्णु भी एकांश हैं तभी दोनो को हरिहर कहा जाता है, हरि अर्थात् नारायण (विष्णु) और हर अर्थात् महादेव (शिव) वेद और नारायण भी एक हैं वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुतम्। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में वेदों का इतना महत्व है तथा इनके ही श्लोकों, सूक्तों से पूजा, यज्ञ, अभिषेक आदि किया जाता है। शिव से ही सब है तथा सब में शिव का वास है, शिव, महादेव, हरि, विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, नीलकंठ आदि सब ब्रह्म के पर्यायवाची हैं। रुद्र अर्थात् 'रुत्' और रुत् अर्थात् जो दु:खों को नष्ट करे, वही रुद्र है, रुतं--दु:खं, द्रावयति--नाशयति इति रुद्र:। रुद्रहृदयोपनिषद् में लिखा है--
सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।
रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दन:।।
यो रुद्र: स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशन:।
ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत्।।
यह श्लोक बताता है कि रूद्र ही ब्रह्मा, विष्णु है सभी देवता रुद्रांश है और सबकुछ रुद्र से ही जन्मा है। इससे यह सिद्ध है कि रुद्र ही ब्रह्म है, वह स्वयम्भू है।
वायुपुराण में लिखा है--
यश्च सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम्।
सर्वान्नात्मगुणोपेतां सुवृक्षजलशोभिताम्।।
दद्यात् कांचनसंयुक्तां भूमिं चौषधिसंयुताम्।
तस्मादप्यधिकं तस्य सकृद्रुद्रजपाद्भवेत्।।
यश्च रुद्रांजपेन्नित्यं ध्यायमानो महेश्वरम्।
स तेनैव च देहेन रुद्र: संजायते ध्रुवम्।।
अर्थ: जो व्यक्ति समुद्रपर्यन्त, वन, पर्वत, जल एवं वृक्षों से युक्त तथा श्रेष्ठ गुणों से युक्त ऐसी पृथ्वी का दान करता है, जो धनधान्य, सुवर्ण और औषधियों से युक्त है, उससे भी अधिक पुण्य एक बार के रुद्री जप एवं रुद्राभिषेक का है। इसलिये जो भगवान शिव का ध्यान करके रुद्री का पाठ करता है, वह उसी देह से निश्चित ही रुद्ररूप हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।
प्रथम अध्याय = 10 श्लोक
शिवसंकल्प सुक्त
प्रथम अध्याय के 5वे मंत्र से इसकी शुरुआत है--
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति। दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥१॥
अर्थ: जो मन जागते हुए मनुष्य से बहुत दूर तक चला जाता है, वही द्युतिमान् मन सुषुप्ति अवस्था में सोते हुए मनुष्य के समीप आकर लीन हो जाता है तथा जो दूरतक जाने वाला और जो प्रकाशमान श्रोत आदि इन्द्रियों को ज्योति देने वाला है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः। यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥२॥
अर्थ: कर्म अनुष्ठान में तत्पर बुद्धि संपन्न मेधावी पुरुष यज्ञ में जिस मन से शुभ कर्मों को करते हैं, प्राजाजन के शरीर में और यज्ञीय पदार्थों के ज्ञान में जो मन अद्भुत पूज्य भाव से स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु। यस्मान्न ऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥३॥
अर्थ: जो मन प्रकर्ष ज्ञान स्वरूप, चित्त स्वरूप और धैर्य रूप हैं; जो अविनाशी मन प्राणियों के भीतर ज्योति रूप से विद्यमान है और जिसकी सहायता के बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥४॥
अर्थ जिस शाश्वत मन के द्वारा भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्यकाल की सारी वस्तुएँ सब ओर से ज्ञात होती हैं और जिस मन के द्वारा सात होतावाला यज्ञ विस्तारित किया जाता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
यस्मिन्नृचः साम यजूं गुँ षि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः। यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ॥५॥
अर्थ: जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाएँ और जिसमें सामवेद तथा यजुर्वेद के मंत्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित है, जैसे रथ चक्र की नाभि में तीलियाँ जुड़े रहते हैं, जिस मन में प्रजाओं का सारा ज्ञान (पट में तंतु की भाँति) ओतप्रोत रहता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव। हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥६॥
अर्थ: जो मन मनुष्य को अपनी इच्छा के अनुसार उसी प्रकार घुमाता है, जैसे कोई अच्छा सारथि लगाम के सहारे वेगवान् घोड़ों को अपनी इच्छा के अनुसार नियंत्रित करता है; बाल्य, यौवन, वार्धक्य आदि से रहित तथा अति वेगवान् जो मन हृदय में स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।
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