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Скачать или смотреть जिस घर की महिला यह काम करती है | उनके घर धन लक्ष्मी कभी निवास नहीं करती | Aniruddhacharya

  • Aastha Bhakti
  • 2022-12-03
  • 150
जिस घर की महिला यह काम करती है | उनके घर धन लक्ष्मी कभी निवास नहीं करती | Aniruddhacharya
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Описание к видео जिस घर की महिला यह काम करती है | उनके घर धन लक्ष्मी कभी निवास नहीं करती | Aniruddhacharya

क्या आपको ईश्वर में अस्था है? क्या आप किसी पर विश्वास करते है? तो इन दोनो का उत्तर होगा अपके पास कि हां है किन्तु यह दोनो होता क्या है। यहां पर कई लोग श्रृद्धा को आस्था समझ लेते है जो की अलग है। दोनो भिन्न है। अपने अपने तरीको से दोनो भिन्न है। उन दोनो में अंतर इतना सूक्ष्म है कि शीघ्रता से वह खयाल नहीं आता है। वह ठीक ऐसा ही है जैसे लोग प्रेम और प्यार में समझते है। दोनो में अंतर की रेखा बहुत सूक्ष्म होती है इसलिए भेद को जानना बहुत कठिन हो जाता है। तो आज हम इन्ही दो विषयों पर बात करेंगे। यहां पर दिए गए सारे विचार मेरे स्वयं के है किसी भी व्यक्ति से कोई भी संबंध नहीं रखता है और अगर होता भी है तो वह केवल एक संयोग ही होगा।

प्रथम तो हम श्रृद्धा और आस्था का भेद जान लेते है। श्रृद्धा वह है एक उदहर से समझाने का प्रयास करता हूं। एक बार एक राजा के राज्य में कोई बड़ा संत का आगमन हुआ। मंत्री ने राजा को सूचित किया कि वह बहुत ही ज्ञानी संत है। राजा उनसे मिलने के लिए पहुंच गए। जा कर प्रणाम किया और संत से पूछा कि अगर वह उसको ईश्वर के दर्शन करा दे तो बहुत अच्छा रहेगा और राजा ने ईश्वर के दर्शन के लिए कुछ भी करने की तैयारी दिखाई। तब संत ने थोड़ी देर तक सोचा और बोले कि वह उन्हें ईश्वर के दर्शन करा सकते है किन्तु उनकी एक शर्त भी थी। संत ने कहा, “राजन, में आपको ईश्वर के दर्शन करा सकता हूं किन्तु उसके लिए आपको सात दिन मेरे यहां पर अकेले बिताना पड़ेगा और मैं जो बोलु वह बिना सवाल किए करना पड़ेगा। अगर यह कर लोगे तो मैं आठवें दिन परमात्मा के दर्शन अवश्य करवा दूंगा।” तब राजा ने कहा था वह कुछ भी करने को तत्पर था और वह वहीं पर रुक गया। प्रथम दिन का प्रारंभ हुआ कि संत ने एक भिक्षा पात्र दिया और कहा वह अपने राज्य में जाए और भिक्षा ले कर आए। तो राजा ने सवाल किया, “महाराज, क्या मैं दूसरे राज्य में भिक्षा मांगने नहीं जा सकता? यहां का मै राजा हूं और यहां पर भिक्षा मांगूंगा तो कैसा लगेगा?” तो संत ने माना किया और कहा कि उसने वचन दिया है कोई सवाल किए बिना उसे वही करना है सात दिन जो संत कहे। राजा विवश था उसे जाना पड़ा भिक्षा पात्र लिए। शाम को राजा वापस लाया किन्तु पात्र खाली था। संत ने कुछ नहीं कहा। दूसरे दिन फिर राजा को भेजा। दूसरे दिन भी राजा कुछ नहीं लाया। तीसरे दिन भेजा तो शाम को राजा केवल कुछ दाने लाया। चौथे दिन राजा थोड़ा सा पात्र भर के लाया पांचवे दिन राजा आधा पात्र भर कर लाया। छठे दिन राजा बहुत सारी भिक्षा लाया और सातवे दिन तो पुरा पात्र भार कर लाया और आठवें दिन की शुरुआत हुई तो राजा ने पात्र उठाया जाने के लिए तो संत ने पूछा, “राजन, परमात्मा के दर्शन नहीं करने है? आज आठवा दिन है।” तो राजा ने उत्तर दिया, “प्रभु, नहीं! मुझे तो हो गए दर्शन। जब मेरे अंदर अहंकार था तो मेरी ईश्वर के प्रति श्रद्धा कम थी। इसलिए अहंकार के कारण से मै भिक्षा लाने में पहले 3 दिन तक असमर्थ था। किन्तु धीरे धीरे जब अहंकार गिरता गया वैसे वैसे श्रृद्धा दृढ़ होती है कि यहां पर देने वाला ईश्वर ही है। मैं तो फोगत में अज्ञानता का प्रदर्शन कर रहा था। सब जगह ईश्वर ही विद्यमान है तो कहां देखू? मेरी दृष्टि ही इतनी नहीं थी कि परमात्मा को देखू। जब पात्र पूर्ण भार गया तो सब समझ में आ गया। धन्यवाद् महाराज मेरी अज्ञानता को दूर करने के लिए।”
यहां पर जब अहंकार होता है तो श्रृद्धा काम होती है। श्रृद्धा अहंकार की गैरमौजूदगी में ही रह सकती है। अगर अहंकार है तो श्रृद्धा का अभाव है यह बात स्पष्ट है। अब बात करते है आस्था की। तो उसके लिए एक रामायण का प्रसंग को याद करना आवश्यक है। राज ऋषि जनक के राज में बारह साल से वर्षा नहीं हुई थी तब सीता जी का आगमन नहीं हुआ था तब की बात है। अकाल से बहुत झुज़ने का प्रयास किया था जनक ने किन्तु थक हार कर वह अपने गुरु अष्टवक्रा के पास जाते है तो उनके गुरु उन्हें बताते है, “जनक तुमने इस आपदा से निपटने के लिए क्या किया?” तो जनक जी बोले, “गुरुदेव, में जल और खाद्य सामग्री का वितरण तो कर रहा हूं।” तब अष्टावक्र ने उत्तर दिया, “जनक यह तो तुम्हारी आपदा के प्रति प्रतिक्रिया थी, तुमने आपदा से निपटने के लिए क्या किया?” तो जनक ने जवाब दिया, गुरुदेव, में इस स्थिति में क्या कर सकता हूं? आप ही मार्गदर्शन करें।” तब गुरु ने बोला, “जनक तुमने खेत जोतना क्यो आरंभ नहीं किया? तुम स्वर्ण का हल बनाओ और खेत जोतना आरंभ कर।” जनक तो दुविधा में पड़ गए। बोले, “गुरुदेव आप यह कैसी परीक्षा ले रहे है? जमीन की उर्वरता जल के अभाव में कैसे होगी?” तो गुरुदेव ने बोला, “जनक जहां आस्था होती है वहां पर संशय और संदेह नहीं होता। वहां पर केवल विश्वास होता है।” तब जनक जी ने खेत जोतना आरम्भ किया था और सीता जी प्रकट हुई थी और वर्षा हुई थी।

यहां पर आस्था का अर्थ होता है संशय और संदेह का अभाव। अर्थात जब संशय और संदेह नहीं रहता तो विश्वास होता है और यही विश्वास का नाम है आस्था! जहां पर आस्था होती है वहां पर केवल विश्वास ही होता है। पूर्ण विश्वास।। उसी पूर्ण विश्वास को आस्था कहते है। कई बार लोग कहते है कि हमें उन पर थोड़ा थोड़ा विश्वास है। पर क्या कभी सोचा कि विश्वास या तो पूर्ण होता है या नहीं होता! थोड़ा और ज्यादा तो मात्रा है, जो नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है विश्वास या तो होता है या नहीं होता। थोड़ा या ज्यादा जैसी कोई मात्रा नहीं होती। श्रृद्धा का अर्थ है अहंकार का ना होना और आस्था का अर्थ है संशय और संदेह का ना होना अर्थात पूर्ण विश्वास होना! यह भिन्नता है दोनो में। अब अगर आप किसी से ऐसी कोई बात कहे तो प्रथम यह सोच लीजिएगा की आप क्या बोल रहे हो। उम्मीद है आपको अब ज्ञात हो गया होगा तीनों में। आस्था का अर्थ है पूर्ण विश्वास और श्रृद्धा का अर्थ है अहंकार रहित विश्वास। दोनो में भेद बहुत सूक्ष्म है तो यह भेद जान ले। आशा करता हूं आपको आज का यह लेख पसंद आया होगा। नीचे कमेंट में अवश्य बताए। लाइक और शेयर करना |

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