Geeta Saar Parth Parichay | Mahabharata | Krishna to Parth |

Описание к видео Geeta Saar Parth Parichay | Mahabharata | Krishna to Parth |

Written by Shashank Tiwari 'Manav' | Recitation by Neha

Embark on a soulful journey through the timeless wisdom of the Bhagavad Gita in this captivating recitation, "Geeta Saar Path Parichay." Written by the talented Shashank Tiwari 'Manav' and beautifully recited by Neha, this piece is a reflection on the essence of the Gita's teachings. Presented by the Tale of Time & Library Caffe channel, this video invites you to explore the profound messages of righteousness, duty, and inner peace. Let the soothing voice of Neha guide you through this poetic interpretation, offering a moment of tranquility and inspiration in your day.

पार्थ परिचय

चलो चले अब कुरुक्षेत्र ,
वीरानं पड़ा वह धर्मक्षेत्र,
काल खड़ा फौलाये नेत्र,
अब गवाह बनेगा युद्धक्षेत्र ||

आसान नहीं अद्भुत वेला है ,
यहाँ हर मनुष्य अकेला है,
सहास ने धीरज झेला है ,
यह खेल समय ने खेला है ||

युद्ध रचा महाभारत का ,
अंश है गीता ग्यान का,
परमार्थ की कथा कहें या,
प्रण कहें भगवान का ||



नियती के कार्य अनोखे है ,
तुमने भी तो खाये धोखे है,
क्यूँ हिर्दय तेरा थर्रता है ,
गांडीव गिरा क्यूँ जाता है ||

केशव! ऐंसे ही पूरे होते सपने है ,
किसको यहाँ संधान करूँ ?
इनका कैसे अपमान करूँ?
ये सब तो ठहरे अपने है ||

देखो समक्ष गुरु द्रोण खड़े,
ज़िनने हाथों में शस्त्र धरें,
पूरे कुल में है जो सबसे बड़े ,
इच्छा मृत्यु को धारण किये,
ऐसे भीष्म से कौन लड़े?

नम हुई जाती आँखे है,
गाला भरा अब जाता है,
हाथ कांपते मेरे है
हृदय मेरा घबरता है ||

खड़ा परवत उड़ा सकता हूँ,
बहता दरिया सुखा सकता हूँ,
कुछ भी बोलो संभव कर दूँ
पर गांडीव नहीं ऊठा सकता हूँ ||


रोको नहीं, समर को आने दो ,
बचा है क्या? खोने - पाने को,
ब्रहम्मा की रचना ध्वस्त करूँ ,
भीषण विध्वंस मच जाने दो


ये मन मेरा तो बन्दित है ,
शांकाओं से शंकित है ,
द्वांदो से यूँ चिंतित है ,
विवादों से अतांकित है |



माया छलती है मनुज को,
मोह उसे ले बांधती,
और बानाती ग्रास काल का,
वो ही उतारे उसकी आरती,

इच्छा और कामना,
मानव को है मारती,
सुख - दुख के झुलों में,
हर पल उसको ज़ारती |


मन के छल को अब जान लो,
पार्थ, आत्म बल को पहचान लो,
मन को तन के आधीन कर ,
बस बात मेरी अब मान लो |

सब इच्छाओं को भूल,
कर्म - फल को त्याग दो,
बांधो न यूँ मार्ग नियति का,
समय को नव - निर्माण दो |

कैसा ये उपदेश है?,
क्या दे रहे हो ग्यान,
फल का ही यदि त्याग हो,
क्यूँ फसलो का हो निर्माण |

हर फसल उनन्त ही हो,
ऐसा कब होता है पार्थ,
तीर चलते जब सैकड़ो,
भेदें लक्ष्य कोई एक - आद |

ये बात जो आप कहे ,
है ये रहस्य महान,
ऐसा कोई कर्म नही,
ज़िसमे फल का निहित हो मान ,

कर्मों के अनुसार अर्जुंन,
जीव खीचे लखीर,
कर्म इसे राजा बनायें
या बनायें फ़कीर,

सत्य - असत्य और रात दिन,
है विलोम ये संसार,
ये युद्ध नहीं ये धर्म क्षेत्र,
यही जीत और हार |

मैं अमर हूँ , तू अमर है ,
नाशवर है , ये संसार ,
बादलाओं का दौर है ,
बदले रुप हजार ||

परिवरतन संसार का ,
है अटूट नियम , सुन पार्थ
जीवन अपना पूर्ण कर ,
तज दे ,मोह और स्वार्थ ||

मेरे ही मतस्य , कुर्म ,
वारह , वामन नाम ,
मैं ही नरसिंह व परसु ,
सबका कर्ता -धर्ता राम ||

जब सिमटा जगत , ये सुन्न हुआ ,
तब पुरूष - प्रकृती का मेल हुआ ,
माया और ब्रहमं जा त्रिलोक मिले ,
तिरलोकी में रचना के फूल खिले ||

ब्रह्मं की माया ने फिर,
मन को ऐसा बांध दिया ,
आत्मा को मन के अधीन कर ,
इस नर देही में डाल दिया ||

आत्म बल छोड़ मनुज ने ,
सब अपना मन को मान लिया ,
ऐसी रचना रची माया ने ,
मेरा न तुझको भान दिया ||

तुम मुझको तब जानोगें ,
पहले खुद को जान लो ,
तुझमें - मुझमें फर्क नहीं ,
ये बात मेरी अब मान लो ||

मन के मैले वस्त्र छोड़ के ,
ये आत्म वस्त्र को धार लो ,
तुम ही ऐसे नही ,सब ऐसे है ,
इस परम पद का ,सार लो ||

मैं ही सद -चित -अनन्द हूँ
वो निजधाम ही हमारा है ,
जो तीन लोक से , ऊपर है ,
खुलता दस के पारा है ,

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