आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
ओहो बेडू पको बारो मास,बेडू पको बारो मास..
काफल पको चैत,काफल पको चैत..
कै संग मैं होली मनुलो, स्यानी पूजिगे मैता.
आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
औ सुवा मै रंग लागली मै लगुलो गुलाल,
ओ सुवा मै रंग लागली मै लगुलो गुलाल..
ओ सुवा मैंता नहेगे मैं होरो मलाल,
ओ सुवा मैंता न जा मैं हैगो मलाल..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
ओहो बेडू पको बारो मास,बेडू पको बारो मास..
काफल पको चैत,काफल पको चैत..
कै संग मैं होली मनुलो, स्यानी पूजिगे मैत..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
सरसों फूली प्योली फूली, फूली गए बुरांस..
सरसों फूली प्योली फूली, फूली गे बुरांस..
ओ सुवा मैंता न जा, मैं लागो उदास..
ओ सुवा मैंता न जा, मैं लागो उदास..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
ओहो बेडू पको बारो मास,बेडू पको बारो मास..
काफल पको चैत,काफल पको चैत..
कै संग मैं होली मनुलो, सुवा पूजिगे मैता..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
चोमास में मड़वा फलो, पाकी ग्यो धतूरा,
चोमास में मड़वा फलो, पाकी ग्यो धतूरा..
ओ सुवा मैंत नहेगे मेरो की कासुरो,
ओ सुवा मैंत नहेगे मेरो की कासुरो..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
ओहो आजा सुवा रे होली खेलूलो तेरा दगड़ा..
उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र में होली का त्यौहार एक अलग तरह से मनाया जाता है, जिसे कुमाऊँनी होली कहते हैं। कुमाऊँनी होली का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। यह कुमाऊँनी लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है, क्योंकि यह केवल बुराई पर अच्छाई की जीत का ही नहीं, बल्कि पहाड़ी सर्दियों के अंत का और नए बुआई के मौसम की शुरुआत का भी प्रतीक है, जो इस उत्तर भारतीय कृषि समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है।
होली का त्यौहार कुमाऊँ में बसंत पंचमी के दिन शुरू हो जाता है। कुमाऊँनी होली के तीन प्रारूप हैं; बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली। इस होली में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता, वरन बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बसंत पंचमी के दिन से ही होल्यार प्रत्येक शाम घर-घर जाकर होली गाते हैं, और यह उत्सव लगभग २ महीनों तक चलता है।
कुमाऊँनी होली की उत्पत्ति, विशेष रूप से बैठकी होली की संगीत परंपरा की शुरुआत तो १५वीं शताब्दी में चम्पावत के चन्द राजाओं के महल में, और इसके आस-पास स्थित काली-कुमाऊँ, सुई और गुमदेश क्षेत्रों में मानी जाती है। बाद में चन्द राजवंश के प्रसार के साथ ही यह सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र तक फैली।
बैठकी होली
बैठकी होली पारम्परिक रूप से कुमाऊँ के बड़े नगरों में ही मनाई जाती रही है। बैठकी होली बसंत पंचमी के दिन से शुरू हो जाती है, और इस में होली पर आधारित गीत घर की बैठक में राग रागनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर गाए जाते हैं। इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह ज़फ़र की रचनाएँ सुनने को मिलती हैं। ये बैठकें आशीर्वाद के साथ संपूर्ण होती हैं जिसमें मुबारक हो मंजरी फूलों भरी..। या ऐसी होली खेले जनाब अली...जैसी ठुमरियाँ गाई जाती हैं। कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठकी होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों के बारे में गहराई से अध्ययन किया है, और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू का असर भी माना है।
खड़ी होली
खड़ी होली बैठकी होली के कुछ दिनों बाद शुरू होती है। इसका प्रसार कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है। खड़ी होली में गाँव के लोग नुकीली टोपी, कुरता और चूड़ीदार पायजामा पहन कर एक जगह एकत्रित होकर होली गीत गाते हैं, और साथ साथ ही ढोल-दमाऊ तथा हुड़के की धुनों पर नाचते भी हैं। खड़ी होली के गीत, बैठकी के मुकाबले शास्त्रीय गीतों पर कम ही आधारित होते हैं, तथा पूर्णतः कुमाऊँनी भाषा में होते हैं। होली गाने वाले लोग, जिन्हें होल्यार कहते हैं, बारी बारी गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के घर जाकर होली गाते हैं, और उसकी समृद्धि की कामना करते हैं।
महिला होली
महिला होली में प्रत्येक शाम बैठकी होली जैसी ही बैठकें लगती हैं, परन्तु इनमें केवल महिलाएं ही भाग लेती हैं। इसके गीत भी प्रमुखतः महिलाओं पर ही आधारित होते हैं।
चीड़ बन्धन तथा चीड़ दहन
होलिका दहन के लिए कुमाऊँ में छरड़ी से १५ दिन पहले ही चीड़ की लकड़ियों से होलिका का निर्माण किया जाता है, जिसे चीड़ बंधन कहते हैं। प्रत्येक गांव अपने अपने चीड़ की सुरक्षा में लग जाते हैं, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी गाँव के लोग दूसरों की चीड़ चुराने की कोशिश करते हैं। होली से एक रात पहले चीड़ को जलाया जाता है, जिसे चीड़ दहन कहा जाता है। चीड़ दहन प्रह्लाद की हिरण्यकशिपु के विचारों पर जीत का प्रतीक माना जाता है।
छरड़ी
छरड़ी (धुलेंडी) के दिन लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं। ऐतिहासिक तौर पर इस क्षेत्र में छरड़ से होली मनाई जाती थी, जिस कारण इसे छरड़ी कहा जाता था। छरड़ बनाने के लिए टेसू के फूलों को धूप में सुखाकर पानी में घोला जाता था, जिससे नारंगी-लाल रंग का घोल बनता था, जो छरड़ कहलाता था।
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