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Скачать или смотреть रामचरितमानस मूलपाठ: किष्किन्धाकाण्ड(दोहा:१०-१६)

  • RamcharitManas-Kashi
  • 2025-10-07
  • 1679
रामचरितमानस मूलपाठ: किष्किन्धाकाण्ड(दोहा:१०-१६)
HinduismRamayanaVedasTulsidasSriRamaHanumanRamcharitManas
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Описание к видео रामचरितमानस मूलपाठ: किष्किन्धाकाण्ड(दोहा:१०-१६)

यरामचरितमानस मूलपाठ: किष्किन्धाकाण्ड प्लेलिस्ट

   • रामचरितमानस मूलपाठ: किष्किन्धाकाण्ड  


दो. राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग ॥ १० ॥

राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब ब्याकुल धावा ॥
नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा ॥
तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ॥
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी ॥
उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई ॥
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ॥
राम कहा अनुजहि समुझाई। राज देहु सुग्रीवहि जाई ॥
रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा ॥

दो. लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज ॥ ११ ॥

उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती। तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती ॥
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ। अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ॥
जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीं ॥
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई। बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ॥
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ॥
गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहउँ निकट सैल पर छाई ॥
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदय धरेहु मम काजू ॥
जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ॥

दो. प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ।
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ ॥ १२ ॥

सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ॥
कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए ॥
देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ॥
मंगलरुप भयउ बन तब ते । कीन्ह निवास रमापति जब ते ॥
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥
कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका ॥
बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए ॥

दो. लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ॥ १३ ॥

घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥
दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ॥
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ॥
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें ॥
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी ॥
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई ॥

दो. हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥ १४ ॥

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका ॥
अर्क जबास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥
ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी ॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ॥
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ॥
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥

दो. कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५(क) ॥

कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५(ख) ॥

बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई ॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई ॥
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा ॥
रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥
जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥
पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी ॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ॥
बिनु धन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा ॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥

दो. चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ॥ १६ ॥

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