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Скачать или смотреть महाराणा प्रताप कभी चित्तौड़ किले में क्यों नहीं गए? chittod kele ka Rahasya.

  • Bhakti Sarita
  • 2023-10-20
  • 401
महाराणा प्रताप कभी चित्तौड़ किले में क्यों नहीं गए? chittod kele ka Rahasya.
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Описание к видео महाराणा प्रताप कभी चित्तौड़ किले में क्यों नहीं गए? chittod kele ka Rahasya.

मांई ऐड़ो पूत जण, जैड़ो राणा प्रताप,
अकबर सूतो औजके जाण सिराणे सांप।
 
अर्थात हे माता ऐसे पुत्रों को जन्म दे, जैसे राणा प्रताप हैं। कहा जाता है कि अकबर महाराणा के खौफ से सोते हुए भी चौंक जाता था। वह कभी भी गहरी नींद नहीं सो पाता था। हर समय उसे यह भय सताता था कि कौन जाने कब महाराणा प्रताप कहीं से प्रकट हो जाएं और उसका गला काट दें! यही नहीं, कहते हैं कि मेवाड़ के वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के भय से मुगलों की सेना कभी भी खुले में घेरा नहीं डालती थी और हर समय पशुओं, छकड़ों और कांटों की बाड़ के पीछे छिपकर रहती थी। 
 
परंतु ऐसे प्रबल प्रतापी एवं यशस्वी महाराणा प्रताप कभी भी मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ के किले में नहीं जा सके। जहां पग-पग पर शूरवीरता की गाथाएं भरी पड़ी हैं। वह किला जो महाराणाओं की आन, बान और शान था, प्रताप के चेतक की टापों को सुनने के लिए तरसता ही रह गया। हैरान करने वाली बात है किंतु इतिहास इस बात का गवाह है।
 
पांचवीं सदी में मौर्यवंश के शासक चित्तरांगन मौरी ने 13 किमी की लंबाई, 180 मी. ऊंचाई और 692 एकड़ में फैली इस पहाड़ी पर इस किले को बसाया था। 700 एकड़ में फैले चित्तौड़गढ़ के किले को भारत के सभी किलों में सबसे बड़ा माना जाता है। इससे जुड़ा मिथ भी है कि पांडु पुत्र भीम ने इसका निर्माण किया था। इस किले पर गुहिल वंश (गेहलोत) और सिसोदिया राजपूतों का राज रहा। ये किला राजपूत काल में 7वीं से 16वीं शताब्दी तक सत्ता का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। 
 
किले तक पहुंचने के लिए घुमावदार रास्ते से होकर जाना पड़ता है। इस किले में सात दरवाजे हैं, जिनके नाम हिंदू देवताओं के नाम पर पड़े हैं। इनके नाम हैं- पैदल पोल, भैरव पोल, हनुमान पोल, गणेश पोल, जोली पोल, लक्ष्मण पोल और अंत में राम पोल। इसकी खासियत इसके अनोखे मजबूत परकोटे, प्रवेश द्वार, बुर्ज, महल, मंदिर और जलाशय हैं, जो राजपूत स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं।

 
3 बार हुए जौहर : इस किले का इतिहास शूरवीरता, रक्त और बलिदान से लिखा गया है। मध्यकाल में मुस्लिम शासकों ने इसे तीन बार फतह किया। पहला 1303 में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा किया गया था। खिलजी ने चित्तौड़गढ़ की रानी पद्मिनी को पाने के लिए इस पहाड़ी किले की घेराबंदी की थी। रावल रतन सिंह और उनके दो बहादुर सेनापति गोरा-बादल के रणखेत होने पर रूपवती रानी पद्मिनी को 16000 रानियों के साथ जौहर करना पड़ा था।
 
अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के बाद 1535 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के आक्रमण के दौरान करीब 13000 वीरांगनाओं ने महारानी कर्णावती की अगुवाई में जौहर किया। 1567 ईस्वी में अकबर ने पूरी तरह से चित्तौड़ के किले को बर्बाद कर दिया और एक बार फिर फूलकंवर के नेतृत्व हजारों वीरांगनाओं ने जौहर किया। 
 
1325 में राणा हमीर ने इसे अपना किला बनाया और राणा वंश यानी सिसोदिया वंश का शासन चलना शुरू हुआ और आखिरी तक यहां सिसोदिया वंश का ही शासन रहा। इस वंश में कई प्रतापी राजा हुए। महाराणा सांगा, महाराणा कुंभा, राजा रतन सिंह से लेकर महराणा प्रताप ने चित्तौड़गढ़ पर शासन किया। 15वीं शताब्दी के मध्य में चित्तौड़गढ़ को प्रसिद्धि तब मिली जब महान राजपूत शासक राणा कुंभा ने इस पर शासन किया।  
 
चित्तौड़ के किले और महाराणा प्रताप की कहानी खानवा के मैदान से आरम्भ होती है, जब 1527 में समरकंद और खुरासान से आए बाबर ने चित्तौड़ के महाराणा सांगा को पराजित कर दिया। इस युद्ध में उत्तर भारत के कई राजा-महाराजा एवं राजकुमार रणखेत रहे। इस कारण मेवाड़ की रक्षा पंक्ति कमजोर हो गई। राणा सांगा के बाद उनका पुत्र विक्रमसिंह चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा किंतु राज्य की खोई हुई शक्ति को पुनः संचित नहीं कर सका। 
 
स्वर्गीय महाराणा सांगा के दासी पुत्र बनवीर ने महाराणा विक्रमसिंह की हत्या कर दी और स्वयं महाराणा की गद्दी पर बैठ गया। बनवीर तो स्वर्गीय महाराणा सांगा के छोटे पुत्र उदयसिंह की भी हत्या करना चाहता था किंतु धाय माता पन्ना गूजरी ने राजकुमार उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की तथा उसे कुंभलगढ़ के किले में ले गईं। कुंभलगढ़ के किलेदार ने मेवाड़ के विश्वस्त सामंतों को एकत्रित करके उदयसिंह को मेवाड़ का महाराणा बनवाया।  
 
मेवाड़ के सामंतों ने महाराणा उदयसिंह को मेवाड़ की कठिन घाटियों में भेज दिया और जयमल मेड़तिया तथा फत्ता सिसोदिया के नेतृत्व में दुर्ग की मोर्चाबंदी की। अकबर की विशाल सेना के सामने चित्तौड़ का टिके रहना बहुत कठिन था किंतु हिन्दू वीरों के सामने अकबर की दाल आसानी से गलने वाली नहीं थी।  
 
इसलिए अकबर ने अपने सैकड़ों सैनिकों की बलि देकर दुर्ग की नीवों में बारूद भरवा दी। जब बारूद में विस्फोट किया गया तो किले की दीवार उड़ गई। राजपूत सैनिकों ने इस दीवार की मरम्मत करके मुगलों को किले में घुसने से रोक दिया किंतु इस दौरान दुर्गपति जयमल राठौड़ की टांग में अकबर की बंदूक से निकली गोली लग गई।

जयमल ने अगले दिन सुबह केसरिया करने का निश्चय किया जिसमें राजपूत सिपाही केसरिया कपड़े पहनकर एवं मुंह में तुलसीदल रखकर किले से बाहर निकलकर युद्ध करते थे। दुर्ग में स्थित रानियों एवं राजकुमारियों ने स्वर्गीय महाराणा सांगा की रानी कर्मवती के नेतृत्व में जौहर किया। अगले दिन किले के दरवाजे खोल दिए गए और समस्त मेवाड़ी सैनिक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। इस प्रकार चित्तौड़ का किला महाराणाओं के हाथों से निकल गया।
 
महाराणा उदयसिंह ने बहुत पहले ही भांप लिया था कि अब चित्तौड़ में रहकर मेवाड़ की रक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए उन्होंने दुर्गम पहाड़ों के बीच अपने लिए एक नई राजधानी का निर्माण करवाना आरंभ किया था, जिसे उदयपुर कहा जाता है। चित्तौड़ हाथ से निकल जाने के बाद महाराणा उदयसिंह अपनी इसी नई राजधानी में रहने लगे। 

 
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के कुंभलगढ़ में हुआ था। उनके पिता महाराणा उदयसिंह द्वितीय और माता रानी जयवंत कंवर थीं। महाराणा उदयसिंह द्वितीय ने चित्तौड़ में अपनी रे

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