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Скачать или смотреть महर्षि रमण से बातचीत आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान का विस्तृत वर्णन Talks With Sri Ramana Maharshi Pt 18

  • Arunachala Ramana Spiritual
  • 2023-07-20
  • 133
महर्षि रमण से बातचीत आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान का विस्तृत वर्णन Talks With Sri Ramana Maharshi Pt 18
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Описание к видео महर्षि रमण से बातचीत आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान का विस्तृत वर्णन Talks With Sri Ramana Maharshi Pt 18

रमण एक मौन उपदेशक थे| उन्हें एक मौनी कहना अधिक उपयुक्त होगा| सामान्तया उपदेश के लिए द्वैत अर्थात उपदेशक एवं उपदेश ग्रहण करने वाले का होना आवश्यक है जबकि रमण के बारे में संबोधित करते हुए एक भक्त ने लिखा – “ शुद्ध अद्वैत सार ” | उनके सीधे एवं गंभीर उपदेश मौन में सम्प्रेषित हुए|
यद्यपि कितने वहाँ थे जो उनके उच्चारित एवं अलिखित शब्दों को सुन या अनुभव कर पाये? भक्तों एवं आगन्तुकों ने उनसे प्रश्न पूछे| अपनी असीम अनुकम्पा से उन्होंने अद्वितीय रुप मे उत्तर दिए जैसा कि निम्नलिखित उद्धरण दर्शाते हैं ।
आनन्द:
समस्त जीव सदैव आनन्द की इच्छा रखते हैं, ऐसा आनन्द जिसमें दु:ख का कोई चिन्ह नहीं हो| जबकि हर व्यक्ति अपने आप से सर्वाधिक प्रेम करता है| इस प्रेम का कारण केवल आनन्द है, इसलिए आनन्द अपने स्वयं के भीतर होना चहिए ।
जबकि उस आनन्द की अनुभूति, गहन निद्रा में जब मन अनुपस्थित रहता तो प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन करता है | उस प्राकृतिक आनन्द की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अपने स्वयं के बारे में जानना चाहिए | इसके लिए आत्म – विचार – ‘मैं कौन हूँ?’ प्रमुख साधन है |
चेतना:
सत या चित एक मात्र वास्तविकता है | चेतना + जाग्रत को हम जाग्रति कहते हैं | चेतना + नींद को हम निद्रा कहते हैं | चेतना + स्वप्न को हम स्वप्न कहते हैं | चेतना वह परदा है जिस पर सभी तस्वीरें आती एवं जाती हैं | परदा वास्तविक है जबकि तस्वीरें उस पर छाया मात्र हैं |
मन:
मन आत्मा की आश्चर्यजनक शक्ति है | शरीर के भीतर जो मैं के रुप “में” उदित होता है, वह मन है | जब सूक्ष्म मन, मस्तिष्क एवं इन्द्रियों के द्वारा बहिर्मुखी होता है तो स्थूल नाम, रुप की पहचान होती है | जब वह हृदय में रहता है तो नाम, रुप विलुप्त हो जाते है| यदि मन हृदय में रहता है तो ‘मैं’ या अहंकार जो समस्त विचारों का स्रोत है, चला जाता हैं और केवल आत्मा या वास्तविक शाश्वत ‘मैं’ प्रकाशित होगा| जहाँ अहंकार लेशमात्र नहीं होता, वहाँ आत्मा है|
‘मैं कौन हूँ?’ आत्म विचार
समस्त विचारों का स्रोत – ‘मैं’ का विचार है | मन केवल आत्म – विचार – मैं कौन हूँ द्वारा विगलित होगा| ‘मैं कौन हूँ’ का विचार अन्य सभी विचारों को नष्ट कर देगा और अन्त में स्वयं को भी नष्ट कर देता है| यदि दूसरे विचार उदित होते हैं तो उन्हे पूरा हुए दिए बिना तुरन्त खोज करनी चहिए कि किसके लिए ये विचार उदित हुए| चाहे कितनी ही संख्या में विचार उदित क्यों न हो? जैसे ही एक विचार उदित होता है, सतर्क रहते हुए पूछ्ना चाहिए कि ये विचार किसके लिए है? उत्तर होगा मेरे लिए| यदि आप ‘मैं कौन हूँ’; का आत्म-विचार करते हैं तो मन अपने स्रोत पर वापिस पहुँच जायेगा | विचार जो उदित हुआ था, अस्त भी हो जायेगा | इसका आप जितना अधिक अभ्यास करते हैं, मन की अपने स्रोत में निवास करने की शक्ति बढ़ती जाती है|
आत्म – समर्पण:-
आत्म – समर्पण के दो तरीके हैं | एक – मैं के स्रोत का पता लगाना तथा उस स्रोत मे विलीन हो जाना| दूसरा यह है कि अपने आपको असहाय अनुभव करें | केवल ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है तथा अपने आपको पूरी तरह से उसके उपर छोड़ देने के अतिरिक्त मेरे लिए सुरक्षा का दूसरा साधन नहीं है| क्रमक्ष: यह विश्वास दृढ़‌ करें कि केवल ईश्वर ही अस्तित्वमान है तथा अपने अंहकार का कोई महत्व नहीं है| दोनो ही रास्ते एक ही ल्क्ष्य पर पहुँचाते हैं| पूर्ण – समर्पण, मुक्ति, ज्ञान का ही दूसरा नाम है|
अनुग्रह और गुरु:-
मैने नहीं कहा है कि गुरु की आवश्यकता नहीं है किन्तु गुरु का व्यक्ति की आकृति के रुप में सदैव होना आवश्यक नहीं है। सर्वप्रथम व्यक्ति सोचता है कि वह एक निम्न (छोटा) है तथा कोई एक श्रेष्ठ , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान ईश्वर है जो उसके तथा संसार के भाग्य का नियंत्रण करता है। वह , उस ईश्वर की पूजा या भक्ति करता है। जब वह एक निश्चित अवस्था में पहुँचता है अथवा ज्ञान प्राप्ति के पात्र हो जाता है तो वही ईश्वर जिसकी वह पूजा कर रहा था , एक गुरु के रुप में आता तथा उसका मार्गदर्शन करता है। गुरु, उसे केवल यह बताने आता है कि ईश्वर तुम्हारे स्वयं की आत्मा में है। भीतर गोता लगाओ और परमात्मा, गुरु एवं आत्मा को एक रूप में अनुभव करो।
आत्म – साक्षात्कार
जिसे हम आत्म साक्षात्कार की अवस्था कहते है, वह केवल आत्मवत् होना है, न कि किसी चीज को जानना या कोई चीज हो जाना। जिसने आत्म – बोध किया है, वह केवल वह सत्ता, जो है तथा सदैव अस्तित्वमान रही है, हो जाता है। उस अवस्था का वर्णन वह नही कर सकता है। वह केवल ‘वह’ हो सकता है। निश्चित ही किसी बेहतर संबोधन के लिए हम आसानी से आत्म – साक्षात्कार की बात करते हैं।
केवल शान्ति अस्तित्वमान है। हमें केवल शान्त रहने की आवश्यकता है। शान्ति हमारी वास्तविक प्रकृति है। हम इसे नष्ट करते हैं। इसे नष्ट करने की आदत को बंद करने की आवश्यकता है।
हृदय:
हृदय गुहा के मध्य में केवल ब्रह्म आत्मा के रूप में अहम् – अहम् की स्फुरणा के साथ चमकता है| श्वाँस – नियमन या एकाग्रचित्त आत्म – विचार द्वारा अपने भीतर गोता लगाकर हृदय में पहुँचो | इस प्रकार से आप आत्मा में स्थिर हो जायेंगे|
अहंकार को मारने का दूसरा तरीका है – ईश्वर को समर्पित करना| अपनी असमर्थता अनुभव करते हुए सदा स्मरण रखना कि मैं नही केवल परमात्मा का अस्तित्व है| मैं और मेरे के विचार को छोड़‌ते हुए अपने आपको पूरी तरह से ईश्वर पर छोड़ देना कि उसकी जैसी इच्छा हो करे | भाग्य को जीतने के लिए अहंकार का पूर्णरूप से नष्ट होना आवश्यक है, आप इसकी प्राप्ति चाहें आत्म – विचार से करें या भक्ति मार्ग से|
ज्ञानी:
ज्ञानी ने जीवित रहते हुए मुक्ति प्राप्त की| उनके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह कहाँ और कब शरीर छोडते हैं | कुछ ज्ञानी पीडा में दिखायी पड़ सकते हैं, अन्य समाधि में हो सकते हैं | कुछ मृत्यु के पूर्व ही टृश्य से विलुप्त हो सकते हैं किन्तु उनसे उनके ज्ञान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है |

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