वृंदावन सतलीला पाठ

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राधे कृष्णा✨
जिनकौ वृन्दाविपिन है, कृपा तिनहि की होइ।
वृन्दावन में तबहि तौ, रहन पाइ है सोइ।।102।।

वृन्दावन सत रतन की, माला गुही बनाइ।
भाल भाग जाके लिखी, सोई पहिरै आइ।।103।।

वृन्दावन सुख रंग की, आशा जो चित्त होइ।
निशि दिन कंठ धरै रहै, छिन नहिं टारै सोइ।।104।।

वृन्दावन सत जो कहै, सुनि है नीकी भाँति।
निसदिन तेहि उर जगमगे, वृन्दावन की काँति।।105।।

वृन्दावन कौ चितंबन, यहै दीप उर बार।
कोटि जन्म के तम अघहि, कोटि करै उजियार ।।106 ।।

बसिकै वृन्दाविपिन में इतनो बड़ौ सयान।
युगल चरण के भजन बिन, निमिष न दीजै जान ।।107।।

सहज विराजत एक रस, वृन्दावन निज धाम।
ललितादिक सखियन सहित, क्रीडत स्यामा श्याम ।।108।।

प्रेम सिंधु वृन्दाविपिन, जाकौ अंत न आदि।
जहाँ कलोलत रहत नित, युगल किशोर अनादि।।109।।

न्यारो चौदह भवन तै, वृन्दावन निज भौन।
तहाँ न कबहुँ लगत है महा प्रलय की पौन।।110।।

महिमा वृन्दाविपिन की, कहि न सकत मम जिह।
जाके रसना द्वे सहस, तीनहुँ काढी लीह।।111।।

एती मति मोपै कहा , शोभा निधि बनराज।
ढीठो कै कछु कहत हौं, आवत नहिं जिय लाज।।112।।

मति प्रमान चाहत कह्यौ, सोऊ कहत लजात।
सिंधु अगम जेहि पार नहिं, कैसे सीप समात।।113।।

या मन के अवलंब हित, कीन्हों आहि उपाय।
वृन्दावन रस कहन में,मति कबहुँ उरझाय ।।114।।

सोलह सै ध्रुव छ्यासिया,पून्यौ अगहन मास।
यह प्रबन्ध पूरन भयौ, सुनत होत अघ नास।।115।।

दोहा वृन्दाविपिन के , इकसत षोडश आहि ।
जो चाहत रस रीति फल, छिन छिन ध्रुव अवगाहि ।।116।।

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