Satsang Amrit :-
0:16 बाहर का समस्त ज्ञान रखते हुए अगर स्वयं का ज्ञान नहीं हुआ, अगर आत्मज्ञान नहीं हुआ तो बाहर का तो बाहर है जैसे बिल्कुल अज्ञान ही रह गया।
0:37 जितना ज्ञान प्राप्त कर ले बाहर से ; शरीर का ,संसार का, इन संबंधों का, व्यवहार का, नीति का, नियम का, समाज का, लोक का, जितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले अगर स्वयं का ज्ञान नहीं हुआ, अगर आत्मज्ञान नहीं हुआ तो जैसे सारा ज्ञान बिल्कुल अज्ञान की तरह है, बिल्कुल अंधेरे की तरह है।
2:04 जिज्ञासा का अभाव नहीं होना चाहिए, जिज्ञासा बड़ी वस्तु है। एक भक्त ही जिज्ञासु है।
2:16 चार प्रकार के भक्त होते हैं। भक्तों की चार श्रेणियां बतलाई गईं । एक है आर्त जो दु:खों से छूटना चाहता है, और दु:खों से भला कौन न छूटना चाहे!
2:50 हम सबको सुख चाहिए, हम सबको शांति चाहिए । जो श्रेष्ठ कामनाएं हैं, जो धर्मयुक्त कामनाएं हैं , विवेकयुक्त कामनाएं हैं, उन कामनाओं की पूर्ति तो अवश्य ही होनी चाहिए। लेकिन अध्यात्म केवल कामना की पूर्ति तक सीमित नहीं है।
3:59 एक भक्त है जिसे कहा गया जिज्ञासु ! उसके अंदर जिज्ञासा का भाव है, जानने का प्रयत्न है, अध्यात्म के तत्वों को वो आत्मसात करना चाहता है। जिज्ञासा बड़ी वस्तु है। एक अर्थार्थी है और एक ज्ञानी भक्त है जो श्रेष्ठतम भक्त है जो ज्ञान में ही जैसे निमग्न हो। जो वस्तु के वास्तविक प्रत्यक्ष में ही स्थित हो।
4:47 नारद पहुंच गए हैं महर्षि सनत कुमार के पास ; ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से, ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा से, महर्षि पूछते हैं प्यारे नारद आप ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आए हो, आपने अब तक क्या क्या ज्ञान प्राप्त किया है। नारद ने कहा - महर्षि मैं चारों वेदों को जानता हूं, महर्षि मैं शिक्षा , कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष जानता हूं , मैं देव विद्या जानता हूं, मैं नक्षत्रों के रहस्यों को जानता हूं, मैं भूगर्भ के विज्ञान को जानता हूं, मैं नृत्य जनता हूं, में संगीत जानता हूं, मैं विभिन्न प्रकार के कला कौशलों में निपुण हूं महर्षि!
6:11 जब भी नारद का नाम आता है तो हमें लगता है कि कोई सूचना का संवाहक है, ये सूचना इधर से उधर कर रहे हैं, लेकिन नारद ने कितनी विद्याओं की प्राप्ति की, अपराविद्या का कितना ज्ञान नारद ने प्राप्त किया है। इतनी बड़ी लिस्ट बतला दी महर्षि को, उन्होंने पूछा था ! तो कहा की चारों वेदों को जानता हूं , वेदांगों को जानता हूं, शिक्षा , कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष को जानता हूं, मैं मंत्रों को जानता हूं, मैं मंत्रविद् हूं महर्षि, मैं मंत्रों का ज्ञाता हूं, मैं मंत्रविद् हूं लेकिन आत्मविद नहीं हूं प्रभु! मैं कौन हूं ? मैं क्या हूं? मैं ये नहीं जानता! मैं कौन हूं मुझे इसका ही ज्ञान नहीं है ! सब ज्ञान रहते हुए , सारा ज्ञान रखते हुए नारद कैसे अज्ञान में स्थित है जैसे ! बिल्कुल अज्ञान में स्थित हो गया। इतना ज्ञान रखते हुए बिल्कुल शून्य की स्थिति।
8:14 महर्षि क्या कहते हैं ! प्यारे नारद विद्याएँ दो प्रकार की होती हैं। तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्शा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥
प्यारे नारद आपने जितनी भी विद्याओं को प्राप्त किया है, जितना भी आपने ज्ञान प्राप्त किया है, वो अपराविद्या है, उसका संबंध बौद्धिक है, उसका धरातल भौतिक है।
9:00 एक विद्या है जिस विद्या को कहते हैं पराविद्या और इस पराविद्या के द्वारा क्या होता है ! ऐसे पदार्थ जिनका विनाश नहीं होता, कभी नाश नहीं होता, उसका अनुभव हो जाता है।
9:38 परविद्या के द्वारा , ब्रह्मविद्या के द्वारा अविनाशी पदार्थों का अनुभव होता है।
10:21 अध्यात्म की धारा का जो संबंध है वह साधनात्मक है, वह अनुभवात्मक है,वह आत्मिक है, उसका धरातल जड़ नहीं है, उसका धरातल चेतन है।
10:38 दिये से दीया जलाएं,चलो दीप वहां जलाएं जहां अभी अंधेरा है। मन के किसी कोने में अंधेरा छिपा हो, जो ब्रह्मविद्या की किरणें हैं, जो स्वर्वेद का स्वर है, जो सद्गुरुदेव का ज्ञान विज्ञान है, जो विहंगम योग का दर्शन है, एक साधक और साधिका के मन के किसी कोने में छिपे हुए अंधेरे को दूर करने का सामर्थ्य रखता है।
11:28 सद्गुरू का सिद्धांत सर्वोपरि है, हम सब सिद्धांत में हैं, हम सब साधना में हैं, हम सब सेवा भाव में हैं, हम सब चल रहे हैं, बढ़ रहे हैं , सबका अपना अपना अन्तःकरण है,सब चल ही रहे हैं,सब बढ़ ही रहे हैं, सबके अंदर श्रद्धा का भाव ही प्रस्फुटित हो रहा है।
12:59 सत्संग न होने से, स्वर्वेद न होने से केवल संसार का , केवल भौतिक पदार्थों का चिंतन होता रहता है। जो विनाशी है उसी का चिंतन होता रहता है। शरीर का चिन्तन करना है,संसार का चिंतन करना है, जितना चिंतन करना,उतना ही करना है।
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