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Скачать или смотреть संस्कार विधि, स्वामी दयानन्द सरस्वती, Sanskar Vidhi, Swami Dayanand Saraswati, Arya Samaj 16 संस्कार

  • Sanatana Vichaar
  • 2024-06-06
  • 3743
संस्कार विधि, स्वामी दयानन्द सरस्वती, Sanskar Vidhi, Swami Dayanand Saraswati, Arya Samaj 16 संस्कार
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Описание к видео संस्कार विधि, स्वामी दयानन्द सरस्वती, Sanskar Vidhi, Swami Dayanand Saraswati, Arya Samaj 16 संस्कार

Book Overview: संस्कार विधि, स्वामी दयानन्द सरस्वती, Sanskar Vidhi, Swami Dayanand Saraswati, Arya Samaj, आर्य समाज, 16 संस्कार विधि, Arsh Sahitya Prachar Trust, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट

Pages 32 + 224

Price INR 60

Description from Arsh Sahitya website -

आर्य जाति में अपने संस्कारों की शिथिलता को देखते हुए, इस जाति के पुनरुत्थापनार्थ ऋषि दयानन्द जी ने संस्कार विधि नामक अलौकिक ग्रन्थ की रचना का उपक्रम किया। जिन के द्वारा शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं, इसलिए संस्कारों का करना सब मनुष्यों को अति उचित है।

स्वामी जी ने वेदों और वेदानुकूल शास्त्रों के आधार पर जिन सौलह संस्कारों का विधान किया, उनका विवरण निम्न प्रकार हैं –

गर्भाधान संस्कार – गार्हस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य देश और धर्म के लिए उत्तम सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखने वाले माता-पिता को तन और मन की पवित्रता के साथ इस संस्कार को करना चाहिए।

पुंसवन संस्कार – गर्भावस्था के दौरान ही बालक पर संस्कारों का प्रभाव पडता है। गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार अत्यन्त उपयोगी है। स्वस्थ और उत्तम सन्तान के प्रयोजन के लिए, यह संस्कार अत्यन्त आवश्यक है।

सीमन्तोन्नयनम् संस्कार – सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है कि सौभाग्य सम्पन्न होना। गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना, इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। यह संस्कार स्त्री के मन को प्रसन्न रखते हुए गर्भस्थ बालक के सामान्यतः शारीरिक और विशेषतः मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए होता है।

जातकर्म संस्कार – गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन – इन तीन गार्भ संस्कारों को जन्मोत्तर संस्कारों से जोडनेवाला यह जातकर्म संस्कार है जो जन्म के पश्चात् किये जानेवाले कर्मों का निर्देश करने के साथ-साथ बालक को संस्कृत करने की दिशा में अपेक्षित कर्त्तव्यों का निर्देश करता है। इस संस्कार में बालक को स्वर्ण की शलाका से जिह्वा पर शहद और घृत के मिश्रण से ओम् लिखा जाता है। पिता बालक के कान “वेदोऽसीति कहता है। इसके पश्चात् माता बालक को स्तनपान कराती है।

नामकरण संस्कार – इस संस्कार में बालक का नाम आचार्यादि के साथ मिलकर रखा जाता है। बालक की अपनी पहचान के लिए, इस संस्कार का विधान किया जाता है।

निष्क्रमण संस्कार – इस संस्कार में बालक को घर से बाहर निकाला जाता है तथा उसे शुद्ध वायु में भ्रमण करवाया जाता है ताकि बालक हृष्ट-पुष्ट और निरोगी बने।

अन्नप्राशन संस्कार – इस संस्कार में जब बालक अन्न खाने योग्य हो जाता है तब उसे शारीरिक और मानसिक विकास के अनुसार विशेष अनाजादि खिलाने का विधान किया है।

चूडाकर्म संस्कार – इसे मुण्डन संस्कार भी कहते है। शिशु के मलीन बालों को उस्तरे की सहायता से साफ करा दिया जाता है। मुण्डन से नये सुन्दर, पुष्ट बाल निकलने में सहायता मिलती है। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य बालक में शुचिता का प्रसार करना है।

कर्णवेध संस्कार – इस संस्कार में बालक के कर्ण का वेधन किया जाता है। आयुर्वेद के ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में कर्णवेध के लाभों का उल्लेख है, उसी को ध्यान में रखते हुए इस संस्कार का विधान किया गया है।

उपनयन संस्कार – उपनयन का अर्थ है कि समीप प्राप्त करना या होना। इस संस्कार में बालक को यज्ञोपवीत पहनाकर, उसे गुरूकुलावास में शिक्षा हेतु भेजा जाता है।

वेदारम्भ संस्कार – इस संस्कार में वेदों और शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ होता है। ज्ञानवान की सर्वत्र प्रशंसा होती है, ज्ञान से विनम्रता और धन व धर्म प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। अज्ञानी व्यक्ति को शास्त्रों में दो पैरों वाला पशु कहा गया है अतः व्यक्तित्व निर्माण के लिए यह संस्कार अति उपयोगी है।

समावर्त्त संस्कार – समावर्त्तन संस्कार, उसको कहते हैं कि ब्रह्मचर्यव्रतपूर्वक साङोपाङ्ग वेदविद्या, उत्तमशिक्षा और पदार्थविज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विवाह-विधानपूर्वक गृहाश्रम को ग्रहण करने के लिए विद्यालय को छोड़कर घर की ओर आना। इस संस्कार में स्नातक सुन्दर वस्त्र धारण करता है तथा आचार्यों और गुरूजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिए विदा होता है।

विवाह संस्कार – विवाह उसको कहते हैं कि जो पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत द्वारा विद्या-बल को प्राप्त तथा सब प्रकार से शुभ गुण-कर्म-स्वभावों में तुल्य, परस्पर प्रीतियुक्त होके सन्तानोत्पत्ति और अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुकूल उत्तम कर्म करने के लिए स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध होता है। यह संस्कार मानव वंश अभिवृद्धि में सहायक है। इस संस्कार के अन्तर्गत गृहाश्रम कर्तव्य होते है।

वानप्रस्थ संस्कार – इस संस्कार का उद्देश्य है कि व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति के लिए और सन्यास में दीक्षित होने के अभ्यास के लिए, चित्त शुद्धि हेतु वन में गमन करना। वन के एकान्त क्षेत्र में वानप्रस्थ ईश्वर के चिंतन मनन और योग साधना में अपना समय व्यतीत करता है।

सन्यासाश्रम संस्कार – इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है कि मोहादि आवरण, पक्षपात छोड़कर विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरना।

अन्त्येष्टि संस्कार – अन्त्येष्टि संस्कार, उसको कहतें हैं कि जो शरीर के अन्त का संस्कार है। इस संस्कार में मानव शरीर को अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है। इसी को नरमेध, पुरूषमेध, नरयाग भी कहते हैं।

यह सभी संस्कारों का संक्षिप्त विवरण है, इनकी विस्तृत व्याख्या संस्कार विधि मंगवाकर ज्ञात करें तथा संस्कारों को अपने जीवन में उतारते हुए अपने और परिवार के उज्जवल जीवन चरित्र का निर्माण करें।

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