महर्षि व्यास क्यों असंतोष हुए 🚩 श्री मद्भागवत महापुराण 🪔 प्रथम स्कंध /अध्याय 4/अध्यात्म साधना
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वेदव्यास जी ने वेदों का विभाजन, उपनिषदों की रचना, महाभारत की रचना आदि बहुत महान कार्य किए थे, लेकिन फिर भी उनके भीतर एक असंतोष और चिंता बनी रही। वे सोचने लगे कि उन्होंने सब कुछ तो किया, फिर भी उन्हें आत्मिक शांति क्यों नहीं मिल रही?
तभी देवर्षि नारद प्रकट होते हैं और वेदव्यास जी से कहते हैं कि—
"आपने ईश्वर की निर्गुण भक्ति का पूर्ण रूप से वर्णन नहीं किया, इसलिए आपको संतोष नहीं मिल रहा।"
यहीं से श्रीमद्भागवत की रचना का शुभारंभ होता है — जिसमें केवल भगवान श्रीकृष्ण की लीला, गुण, नाम, रूप और भक्ति का पूर्ण निरूपण है।
तो वेदव्यास जी का चिंतित होना क्यों मंगलकारी?
इस चिंता के कारण ही भागवत की रचना हुई।
अगर वे संतुष्ट हो जाते, तो शायद श्रीमद्भागवत जैसा अद्भुत ग्रंथ संसार को न मिलता।
उनकी चिंता ने संसार को भगवत्भक्ति का सबसे बड़ा साधन प्रदान किया।
जीवों को मोक्ष का मार्ग मिला।
श्रीमद्भागवत के श्रवण, पठन, मनन से अनगिनत जीवों का कल्याण हुआ है और हो रहा है।
यह दर्शाता है कि केवल कर्म या ज्ञान पर्याप्त नहीं,
जब तक उसमें भगवत्प्रेम और भक्ति न हो, आत्मा को शांति नहीं मिलती — यह शिक्षा हमें उनके उदाहरण से मिलती है।
निष्कर्ष:
व्यास जी की वह चिंता वास्तव में सारे संसार के लिए एक महान कृपा बन गई। उसी चिंता से श्रीमद्भागवत की रचना हुई, जो कलियुग में भक्ति, ज्ञान और मोक्ष का सर्वोच्च ग्रंथ है। इसीलिए कहते हैं — “व्यास की असंतोष की पीड़ा ही हमारे लिए परमानंद का कारण बनी।”
भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 4 महर्षि व्यास जी का असंतोष की कथा सुनिये
श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 4 महर्षि व्यास जी का असंतोष की कथा सुनिये
व्यास जी कहते हैं- उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्यावयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनक जी ने सूत जी की पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा। शौनक जी बोले- सूत जी! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं, जो कथा भगवान श्रीशुकदेव जी ने कही थी, वही भगवान की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये। वह कथा किस युग में, किस स्थान पर और किस कारण से हुई थी? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन ने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था। उनके पुत्र शुकदेव जी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभावरहित, संसार निद्रा से एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मा में ही स्थिर रहते हैं।
शौनकादि ऋषियों! यद्यपि व्यास जी इस प्रकार अपनी पूरी शक्ति से सदा-सर्वदा प्राणियों के कल्याण में ही लगे रहे, तथापि उनके हृदय को सन्तोष नहीं हुआ। उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यास जी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे- ‘मैंने निष्कपट भाव से ब्रह्मचर्यादी व्रतों का पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्नियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञा का पालन किया है। महाभारत की रचना के बहाने मैंने वेद के अर्थ को खोल दिया है- जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने-अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास इस प्रकार अपने को अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रम पर देवर्षि नारद जी आ पहुँचे। उन्हें आया देख व्यास जी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओं के द्वारा सम्मानित देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा की।
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