आश्रम व्यवस्था (ashram vyavastha) II ashram System in hindi II Sociology and Social Issues

Описание к видео आश्रम व्यवस्था (ashram vyavastha) II ashram System in hindi II Sociology and Social Issues

आश्रम व्यवस्था का अर्थ/ आश्रम व्यवस्था किसे कहते है?
महर्षि व्यास जी -
महाभारत में व्यास जी नेे बताया है कि जीवन के चार विश्राम स्थल या आश्रम व्यक्तित्व के विकास की 4 सीढ़ियां हैं इन पर क्रम सेे चढ़ते हुए व्यक्ति को ब्रह्मम प्राप्त करता है।
आश्रम के प्रकार:
आश्रम चार प्रकार के होते है
महाभारत में लिखा गया है, कि जीवन के चार आश्रम व्यक्तित्व के विकास की चार सीढ़ियाँ हैं, जिन पर क्रम से चढ़ते हुए व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति करता है। आरम्भिक स्तर पर केवल तीन आश्रमों का ही उल्लेख मिलता है और इनमें वानप्रस्थाश्रम एवं संन्यासाश्रम एक दूसरे से मिले हुए थे, जिन्हें बाद में अलग कर दिया गया। छान्दोग्य उपनिषद् में भी गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं ब्रºाचर्याश्रम कुल तीन आश्रमों का उल्लेख है। चार आश्रम अर्थात् आश्रम व्यवस्था का सुव्यवस्थित रूप जाबालि उपनिषद में प्रथम बार देखने को मिलता है।

आश्रमों व्यवस्था का विभाजन
भारत में व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को 100वर्ष का मानकर 25-25 वर्ष के चार आश्रमों में विभाजित किया गया है-
1. ब्रह्मचर्य आश्रम :-
व्यक्ति के जीवन का प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम है, ब्रह्म का आशय महान एवं चर्य का आशय है, चलना अर्थात महानता के मार्ग पर चलना। शुद्ध अर्थों में ब्रह्मचर्य अनुशासन, पवित्रता, सेवा, कर्तव्य परायणता, नैतिकता, आचरण की शुद्धता, ज्ञान के संयम एवं मूलत: शुद्धता से महानता की ओर बढ़ने का आश्रम है।

के0 एम0 कपाड़िया ने लिखा है, कि जीवन का यह ढंग यौवनावस्था के प्रबल वेग को नियन्त्रित करता है, इसे बाधित जीवन कहा जा सकता है, लेकिन जब सम्पूर्ण दैनिक जीवन नियमबद्ध हो जाता है, तो इसे जीवन के महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित कर दिया जाता है, तब इसके दमन का प्रश्न ही नहीें उठता।23 इस आश्रम में व्यक्ति के सभी कर्तव्यों का निर्धारण उस प्रकार किया जाता है, जिससे उसका शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास बिना किसी बाधा के हो सके।


2. गृहस्थाश्रम :-
गृहस्थाश्रम दूसरी एवं वह सीढ़ी है, जो विवाह के उपरान्त प्रारम्भ होती है और पचास वर्ष तक बनी रहती है। वस्तुत: यही मूल आश्रम है। यह आश्रम सच्ची कर्मभूमि है जिसमें ब्रह्मचर्य आश्रम की शिक्षाओं को मूर्तरुप दिया जाता है। गृहस्थाश्रम धर्म, अर्थ एवं काम की त्रिवेणी है। एक गृहस्थ को जीव हत्या, असंयम, असत्य, पक्षपात् शत्रुता, अविवेक, डर, मादक द्रव्यों के सेवन, कुसंगति, अकर्मण्यता और चाटुकारिता से दूर रहना चाहिए। गृहस्थ से अपेक्षा की जाती है, कि वह माता-पिता, आचार्यों, वृद्धों, ऋशियों का आदर करे, पत्नी के प्रति उसका व्यवहार धर्मानुकूल धर्म एवं काम की मर्यादाओं के अनुसार हो। इन्द्र का कथन है कि, “गृहस्थ का जीवन स्वयं अत्यधिक श्रेष्ठ और पवित्र है, उसी के द्वारा जीवन के उद्देश्य की वास्तविक पूर्ति सम्भव है।”
3. वानप्रस्थाश्रम :-
वानप्रस्थ का आशय है वन की ओर प्रस्थान करना। मनु ने लिखा है, कि गृहस्थ जब देख ले, कि उसकी त्वचा ढीली पड़ गर्इ है, बाल सफेद हो गये हैं तथा सन्तान के भी सन्तान हो गर्इ है, तब वह सभी को छोड़ कर वन की ओर प्रस्थान करे।25 वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति अपनी पत्नी को चाहे तो साथ रख सकता है। दिन में एक बार कन्द-मूल-फल का भोजन करना, इन्द्रिय संयम, साँसारिकता से विरक्ति, जीवों के प्रति दया, समता का भाव आदि वानप्रस्थी के प्रमुख धर्म हैं।

सत्य और ज्ञान की खोज ही उसके जीवन का उद्देश्य है और जनसेवा उसके जीवन का व्रत। वानप्रस्थी का कर्तव्य है, कि वेद-उपनिशदों का अध्ययन करे, यज्ञ आदि कर्मों को पूरा करे तथा बह्मचर्य व्रत का पूर्णतया निर्वाह करे। इस आश्रम के द्वारा वैयक्तिक शुद्धिकरण और समाज कल्याण के उद्देश्यों की प्राप्ति एक साथ हो जाती है।
4. संन्यासाश्रम :-
यह जीवन का अन्तिम पड़ाव होता है। एक वानप्रस्थी को सभी सांसारिक बन्धनों एवं मोह को छोड़कर अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके संन्यासी हो जाना चाहिए। इस आश्रम में एक सन्यासी का कर्तव्य है, कि वह भिक्षा पर निर्भर रहे, अधिक भिक्षा न माँगे, जो कुछ मिले उसी में सन्तोष करे, मोटे वस्त्र पहने, वृक्ष की छाया में सोये, किसी का अनादर न करे, प्राणायाम के द्वारा इन्द्रियों का हनन कर दे व सुख-दु:ख का अनुभव न करे। सन्यास आश्रम भारतीय संस्कृति की उस विशेषता का प्रतीक है, जिसमें वसुधैव कुटुम्बकम के महान लक्ष्य की पूर्ति होती है। के0ए0कपाड़िया, “वास्तव में सन्यासी अपनी विस्तृत मानवीयता सहित समाज को भली प्रकार प्रभावित करने और मार्गदर्शन करने के योग्य होता है।”
#UPSC #IAS #IPS #CDS #NDA #CAPF

Комментарии

Информация по комментариям в разработке