#आदि शंकराचार्य कृत भावन्यष्टकम#
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भगवान आद्य शंकराचार्य निर्गुण-निराकार अद्वैत
परब्रह्म के उपासक थे। एक बार वे काशी आए
तो वहां उन्हें अतिसार (दस्त) हो गया जिसकी
वजह से वे अत्यन्त दुर्बल हो गए। अत्यन्त कृश
काय होकर वे एक स्थान पर बैठे थे। उन पर कृपा
करने के लिए भगवती अन्नपूर्णा एक गोपी
का वेष बनाकर दही का एक बहुत बड़ा
पात्र लिए वहां आकर बैठ गयीं। कुछ देर
बाद उस गोपी ने कहा–’स्वामीजी! मेरे
इस घड़े को उठवा दीजिए।’
स्वामीजी ने कहा–’मां! मुझमें शक्ति
नहीं है, मैं इसे उठवाने में असमर्थ हूँ।’
मां ने कहा–’तुमने शक्ति की उपासना
की होती, तब शक्ति आती। शक्ति की
उपासना के बिना भला शक्ति कैसे आ
सकती है?’ यह सुनकर शंकराचार्यजी
की आंखें खुल गयीं। उन्होंने शक्ति की
उपासना के लिए अनेक स्तोत्रों की
रचना की। भगवान शंकराचार्यजी
द्वारा स्थापित चार पीठ हैं। चारों में ही चार शक्तिपीठ हैं।
भवान्यष्टक श्रीशंकराचार्यजी द्वारा रचित मां भवानी (शिवा, दुर्गा) का शरणागति स्तोत्र है। माँ भवानी शरणागतवत्सला होकर अपने भक्त को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी की शरण में आए हुए मनुष्यों पर विपत्ति तो आती ही नहीं बल्कि वे शरण देने वाले हो जाते हैं।
भवानी अष्टक
न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥१॥
हे भवानि! पिता, माता, भाई, दाता, पुत्र,
पुत्री, भृत्य, स्वामी, स्त्री, विद्या और वृत्ति–
इनमें से कोई भी मेरा नहीं है, हे देवि!
एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्ही मेरी गति हो।
भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥२॥
मैं अपार भवसागर में पड़ा हूँ, महान
दु:खों से भयभीत हूँ, कामी, लोभी,
मतवाला तथा घृणायोग्य संसार के
बन्धनों में बँधा हुआ हूँ, हे भवानि!
अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम्।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥३॥
हे देवि! मैं न तो दान देना जानता हूँ
और न ध्यानमार्ग का ही मुझे पता है,
तन्त्र और स्तोत्र-मन्त्रों का भी मुझे
ज्ञान नहीं है, पूजा तथा न्यास आदि
की क्रियाओं से तो मैं एकदम कोरा हूँ,
अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित्।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥४॥
न पुण्य जानता हूँ, न तीर्थ, न मुक्ति का पता है
न लय का। हे माता! भक्ति और व्रत भी मुझे ज्ञात
नहीं है, हे भवानि! अब केवल तुम्हीं मेरा सहारा हो।
कुकर्मी कुसंगी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचारहीनः कदाचारलीनः।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥५॥
मैं कुकर्मी, बुरी संगति में रहने वाला, दुर्बुद्धि, दुष्टदास,
कुलोचित सदाचार से हीन, दुराचारपरायण, कुत्सित
दृष्टि रखने वाला और सदा दुर्वचन बोलने वाला हूँ,
हे भवानि! मुझ अधम की एकमात्र तुम्हीं गति हो।
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित्।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥६॥
मैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा तथा
अन्य किसी भी देवता को नहीं जानता, हे शरण
देने वाली भवानि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥७॥
हे शरण्ये! तुम विवाद, विषाद, प्रमाद, परदेश,
जल, अनल, पर्वत, वन तथा शत्रुओं के मध्य में
सदा ही मेरी रक्षा करो, हे भवानि! एकमात्र
तुम्हीं मेरी गति हो।
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रणष्टः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥८॥
हे भवानि! मैं सदा से ही अनाथ, दरिद्र, जरा-जीर्ण,
रोगी, अत्यन्त दुर्बल, दीन, गूंगा, विपदा से ग्रस्त
और नष्ट हूँ, अब तुम्हीं एकमात्र मेरी गति हो।
इति श्रीमच्छड़्कराचार्यकृतं भवान्यष्टकं सम्पूर्णम्।
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