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Скачать или смотреть द्रोपदी का चीर हरण|जब जुए की बिसात पर रखी गई महाभारत की नींव|

  • सत्य सनातनी
  • 2025-10-12
  • 106
द्रोपदी का चीर हरण|जब जुए की बिसात पर रखी गई महाभारत की नींव|
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द्रोपदी का चीर हरण|जब जुए की बिसात पर रखी गई महाभारत की नींव
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वहां दुर्योधन को स्फटिक मणि जड़ित फर्श को देखकर जल का भ्रम हुआ और वह वस्त्र उठाकर चलने लगा। आगे गया तो रत्नमयी तालाब को फर्श समझकर उसके जल में गिर पड़ा। यह देख सभी स्त्रियां हंसने लगीं। तभी द्रौपदी बोली- वास्तव में, अन्धे के अन्धे पुत्रों ने ही जन्म लिया।
द्रौपदी का कटाक्ष दुर्योधन को सहन नहीं हुआ और वह तुरन्त हस्तिनापुर लौट गया। जब इस घटना का समाचार धर्मराज को मिला, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ, परन्तु भगवान् श्री कृष्ण प्रसन्न भाव से बोले- आज द्वेष का बीज इस यज्ञ द्वारा बोया गया है। अतः अब मैं अवश्य ही भूमि का भार उतारूंगा।
यह कहकर श्री कृष्ण भी द्वारिका चले गये। उधर दुर्योधन पाण्डवों के अतुल्य वैभव को देख ईष्र्या की अग्नि में जल रहा था। साथ ही द्रौपदी द्वारा कहे गये अपमानजनक शब्द उसके हृदय में विषाक्त शूल की भांति चुभ रहे थे। वह पाण्डवों को दर-दर का भिखारी बना देने की युक्ति सोचने लगा।
उसने अपने मनोभाव शकुनी के सामने भी प्रकट किये, तब शकुनी बोली- भांजे, तुम भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव जैसे महान् योद्धाओं पर कभी भी विजय प्राप्त नहीं कर सकोगे। अतः उन्हें जीतने का ऐसा उपाय होना चाहिये, जिससे वे अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग ही न कर सके। दुर्योधन शकुनी के षड्यंत्रकारी मस्तिष्क से भली-भांति परिचित था। उसने उत्साहित स्वर में पूछा- ऐसा कैसे होगा मामाश्री? होगा भांजे होगा |
शकुनी की आंखों में छल भरी चमक उभरी, वह बोला- तुम युधिष्ठिर को चौपड़ खेलने के लिए निमंत्रण भेजो। चैपड़ में खेले जाने वाले द्युत (जुए) में मैं छल -प्रपंच द्वारा उनकी समस्त सम्पत्ति दांव पर लगवा कर जीत लूंगा। मामा शकुनी की सलाह से दुष्ट बुद्धि दुर्योधन पाण्डवों के साथ चौपड़ खेलने का प्रस्ताव लेकर अपने पिता के पास पहुंचा। उसने उन्हें अपने इस प्रस्ताव के साथ-साथ पापपूर्ण उद्देश्य को भी स्पष्ट कर दिया।
दुर्योधन के उद्देश्य को जानकर, धृर्तराष्ट्र ने कहा- यदि ऐसा कार्य करोगे, तो धर्म, यश, कीर्ति का नाश हो जायेगा। इस पर दुर्योधन क्रोधित होकर आत्महत्या करने की धमकी देने लगा, तो पुत्रमोह के वशीभूत होकर धृतराष्ट्र ने उस दुष्ट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। तब दुर्योधन ने प्रसन्न होकर पाण्डवों का राज्य हड़पने के अभिप्राय से विदुर जी को धर्मराज के पास चौपड़ खेलने का निमंत्रण ले जाने को कहा।

दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी कि- द्रौपदी को निर्वस्त्र कर, मेरी जंघा पर बैठा दो। दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुर्बुद्धि दुःशासन द्रौपदी को अपमानित करने हेतु उसकी साड़ी खींचने लगा। असहाय द्रौपदी ने तब श्री कृष्ण का स्मरण किया , श्री कृष्ण उस समय द्वारिका में थे।
वे वहां से तुरन्त दौड़े आये और धर्मरूप् से द्रौपदी के वस्त्रों में छिपकर उनकी लाज बचाई। भगवान की कृपा से द्रौपदी का चीर अनन्त गुणा बढ़ गया। दुःशासन उसे जितना खींचता, वह उतना ही बढ़ता जाता था। देखते-ही-देखते वहां वस्त्र का ढेर लग गया।
महाबली दुःशासन की प्रचण्ड भुजाएं थक गई, परन्तु साड़ी का छोर हाथ नहीं आया। उपस्थित सारे समाज ने भगवद् भक्ति एंव पतिव्रता का अद्भुत चमत्कार देखा। अन्त में दुःशासन लज्जित होकर बैठ गया। भक्त वत्सल प्रभु ने अपने भक्त की लाज रख ली।
किसी साधारण मानव द्वारा अपने भक्त की इस प्रकार आलौकिक ढंग से रक्षा सम्भव न थी | श्री कृष्ण तो साक्षात् भगवान थे। जब द्रौपदी का भरी सभा में अपमान हो रहा था, धर्मपाश में बंधे रहने के कारण युधिष्ठिर ने चूं तक नहीं की और चुपचाप सब कुछ सह लिया। कोई सामान्य मनुष्य भी अपनी आंखों के सामने अपनी पत्नी की इस प्रकार दुर्दशा होते नहीं देख सकता।
उन्हीं के भय से उनके भाई भी मौन धारण किये रहे और मन मारकर बैठे रहे। पाण्डव चाहते तो बलपूर्वक उस अमानुषी अत्याचार को रोक सकते थे, परन्तु यह सोचकर कि धर्मराज द्रौपदी को स्वेच्छा से दांव पर लगाकर हार गये हैं, वे चुप रहे!
जिस द्रौपदी को इनके सामने कोई आंख उठाकर भी नहीं देख सकता था, उस द्रौपदी की दुर्दशा इन्होंने अपनी आंखों से देखकर भी उसका प्रतिकार नहीं किया। युधिष्ठिर यह जानते थे कि शकुनी ने उन्हें कपट से जीता है, फिर भी युधिष्ठिर ने अपनी तरफ से धर्म का त्याग करना उचित नहीं समझा।
उन्होंने सब कुछ सहकर भी सत्य और धर्म की रक्षा को ही सर्वोपरि माना। धर्म प्रेम व सहनशीलता का इससे बड़ा उदाहरण जगत में मिलना कठिन है। जिस समय दुःशासन थककर एक तरफ जा बैठा, तभी भीम ने कहा- क्षत्रियों! यदि इस पापी दुःशासन का हृदय चीरकर इसका वध न करूं तो मुझे पुरूषों की गति न मिल।
यदि यशस्वी धर्मराज हमारे स्वामी न होते तो हम इन अत्याचारों को कभी सहन न करते। फिर भीम ने दुर्योधन से कहा- दुष्ट दुर्योधन! आज मैं भरी सभा में प्रतिज्ञा करता हूं कि तूने अपनी जिस जंघा पर द्रौपदी को बैठाने की आज्ञा दुःशासन को दी थी, तेरी उसी जंघा को मैं अपनी गदा से तोडूंगा। भीम की इन दोनों प्रतिज्ञाओं को सुन सभा भवन में सन्नाटा छा गया।
भीम की प्रतिज्ञा के बाद सभा भवन में छाये सन्नाटे को तोड़ती द्रौपदी बोली- और मैं भी आज प्रतिज्ञा करती हूं, मेरे जिन बालों से दुःशासन ने भरी सभा में मुझे घसीटा है, मैं इन्हें तब तक नहीं संवारूगी, जब तक दुःशासन व दुर्योधन के रक्त से इन्हें गीला न कर लूं।
फिर द्रौपदी ने सारे सभासदों को धिक्कारते हुए धर्म की दुहाई देकर पूछा- जब महाराज युधिष्ठिर ने स्वंय को हारकर पीछे मुझे दांव पर लगाया है, ऐसी दशा में उनका मुझे दांव पर लगाने का अधिकार था या नहीं? द्रौपदी के प्रश्न पर सब के सब सभासद मौन रह गये।

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