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/ princejangra07
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तिलभंडेश्वर वर्णन
काशी में विश्वनाथ जी के अलावा भी कई और भी पौराणिक महत्व वाले शिव मंदिर हैं। कई मंदिरों का इतिहास सैकड़ों साल पुराने हैं। ऐसा ही एक प्राचीन मंदिर है तिलभांडेश्वर महादेव। इस मंदिर के संबंध में मान्यता है कि हर साल मकर संक्रांति पर यहां स्थित शिवलिंग तिल-तिल करके बढ़ता है। इस कारण इस मंदिर को तिलभांडेश्वर कहा जाता है। मंदिर से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं।
तिलभांडेश्वर महादेव मंदिर में शिवरात्रि पर काफी बढ़ी संख्या में शिव भक्त पहुंचेंगे। इस पर्व के अलावा सोमवार और प्रदोष व्रत पर भी भक्त दर्शन के लिए पहुंचते हैं। आमतौर पर यहां भक्त कालसर्प दोष की शांति के लिए भी पूजा करते हैं। मंदिर में कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं।
स्वयं प्रकट हुआ है ये शिवलिंग
तिलभांडेश्वर महादेव शिवलिंग के संबंध में यहां मान्यता प्रचलित है कि ये स्वयंभू शिवलिंग है। ये क्षेत्र ऋषि विभांड की तप स्थली था। ऋषि विभांड यहीं पर शिव पूजा करते थे। भगवान ने उनके तप से प्रसन्न होकर वरदान दिया था कि ये शिवलिंग हर साल तिल के बराबर बढ़ता रहेगा। इस शिवलिंग के दर्शन से अश्वमेघ यज्ञ से मिलने वाले पुण्य के बराबर पुण्य फल मिलता है। तिल के बराबर बढ़ते रहने से और ऋषि विभांड के नाम पर इस मंदिर को तिलभांडेश्वर नाम मिला है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार पुराने समय में इस क्षेत्र में तिल की खेती होती थी। उस समय किसानों को इस क्षेत्र में ये शिवलिंग दिखाई दिया था। लोगों ने शिवलिंग की पूजा करनी शुरू कर दी। यहां के लोग शिवलिंग पर तिल चढ़ाते थे। इस वजह से इसे तिलभांडेश्वर कहा जाने लगा।
औरंगजेब से जुड़ी है मंदिर की कथाएं
यहां कथा प्रचलित है कि मुगल बादशाह औरंगजेब काशी आया था। उस समय बादशाह ने इस मंदिर को तोड़ने के लिए यहां सैनिक भेजे थे। जैसे ही सैनिकों ने शिवलिंग को तोड़ने की कोशिश की तो शिवलिंग से रक्त बहने लगा। ये चमत्कार देखकर सभी सैनिक यहां से भाग गए।
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार अंग्रेजों ने शिवलिंग के बढ़ने की सत्यता जांचने की कोशिश की थी। अंग्रेजों ने शिवलिंग के चारों ओर धागा मजबूती से बांध दिया था जो कि कुछ समय बाद टूट गया था।
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वाराणसी वर्णन
वाराणसी (Varanasi), जिसे काशी (Kashi) और बनारस (Benaras) भी कहा जाता है, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में गंगा नदी के तट पर स्थित एक प्राचीन नगर है। हिन्दू धर्म में यह एक अतयन्त महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है, और बौद्ध व जैन धर्मों का भी एक तीर्थ है। हिन्दू मान्यता में इसे "अविमुक्त क्षेत्र" कहा जाता है
वाराणसी संसार के प्राचीन बसे शहरों में से एक है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं।[3] वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था।
वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।
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Music Credit :
Mahakal Tandav
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