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Скачать или смотреть Strawberry की खेती कैसे करें | Strawberry farming in india | Profit | પહાડોમાં સ્ટ્રોબેરી ની ખેતી|

  • Krishi kranti
  • 2022-12-31
  • 238
Strawberry की  खेती कैसे करें | Strawberry farming in india | Profit | પહાડોમાં સ્ટ્રોબેરી ની ખેતી|
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Описание к видео Strawberry की खेती कैसे करें | Strawberry farming in india | Profit | પહાડોમાં સ્ટ્રોબેરી ની ખેતી|

स्ट्राबेरी रोजेसी कुल का पौधा है जिसकी उत्पति उत्तरी अमेरिका में हुई थी। यहाँ से यह यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस व अन्य देशों के पर्वतीय अंचलों एवं शीतोषण प्रदेशों के पर्वतीय अंचलों एवं शीतोषण प्रदेशों में फैला। भारत में इसका उत्पादन पर्वतीय भागों में नैनीताल, देहरादून, हिमाचल प्रदेश, महाबलेश्वर, महाराष्ट्र, नीलगिरी, दार्जलिंग आदि की पहाड़ियों में व्यावसायिक तौर पर किया जा रहा है। इसकी खेती अब मैदानी भागों, दिल्ली, बंगलौर, जालंधर, मेरठ, पंजाब, हरियाणा आदि क्षेत्रों में भी की जा रही है। सोलन हल्दवानी, देहरादून, रतलाम, नासिक, गुड़गाँव एवं अबोहर स्ट्राबेरी के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है।

झारखंड की मिट्टी तथा जलवायु स्ट्रोबेरी की खेती के लिए उपयुक्त है। अत: यहाँ पर इसकी व्यवसायिक खेती की जा सकती है। इसके लाल, गुलाबी, सुगंधित व पौष्टिक फलों की आजकल बहुत मांग है। इससे जैम व जैली आदि भी बनाया जाता है। इसके 100 ग्राम फल में 87.8% पानी, 0.7% प्रोटीन, 0.2% वसा, 0.4% खनिज लवण, 1.1% रेशा, 9.8% कार्बोहाइड्रेट, 0.03% कल्शियम, 0.03% फास्फोरस व 1.8% लौह तत्व पाया जाता है। इसके अलावा इसमें 30 मि.ग्रा. निकोटिनिक एसिड, 52 मि.ग्रा. विटामिन सी व 0.2 मि.ग्रा. राइवोफ्लेविन भी होता है। विटामिन सी, लौह व खनिज तत्व की प्रचुर मात्रा होने के कारण इस फल का सेवन रक्त अल्पता से ग्रसित रोगियों के लिए बहुत ही लाभप्रद पाया गया है।

ड्रिप सिस्टम की स्थापना एवं खेत की तैयारी
स्ट्राबेरी का फल बहुत ही नाजुक एवं क्षयशील होता है। अत: गुणवत्तायुक्त एवं अधिक उत्पादन के लिए फसल को टपकाव विधि (ड्रिप सिंचाई प्रणाली) से पानी देना चाहिए। इसके लिए फल एवं पौधे के अन्य भागों (पत्ती व तना आदि) को पानी के सीधे संपर्क से बनाना श्रेयस्कर है। एक एकड़ भूमि में ड्रिप सिंचाई प्रणाली से स्ट्रोबेरी लगाने में लगभग 40-65 हजार रूपये तक का खर्च आता है। फसल की रोपाई के पूर्व खेत की गहरी जुताई करके उसे अच्छी तरह समतल कर लेते हैं। तैयार खेत में रिज मेकर (करहा) या फावड़े की सहायता से 40 सें.मी. की दूरी पर एक मीटर चौड़ी व 20-25 सें.मी. ऊँची क्यारी तैयार करते हैं। पट्टियों (मेड) की लंबाई अपनी सुविधा के अनुसार रखते है।

किस्में
भारत वर्ष में उगाई जाने वाली स्ट्राबेरी की अधिकांश किस्में आयातित है व कुछ किस्में संकर विधि से यहाँ की जलवायु के अनुसार विकसित की गई है।

अगेती – डगलस, गोरिल्ला, फर्न, अर्लिग्लो एवं तिओगा।
पिछेती – चांडलर, डाना, सेल्भा एवं स्वीट चार्ली।
स्ट्राबेरी की रोपाई सितम्बर से नवम्बर तक की जा सकती है। अगेती रोपाई से फसल का दाम तो अच्छा मिलता है लेकिन सितम्बर में तापमान अधिक रहने से 15-20 तक पौध मर जाते है। अत: बेहतर है कि अक्टूबर में ही फसल की रोपाई करें। एक एकड़ फसल की रोपाई के लिए 44-45 हजार रनर की आवश्यकता पड़ती है। तैयार क्यारी में 30 25 से.मी. की दूरी पर एक समान व स्वस्थ रनर की रोपाई करें। रोपाई के बाद स्प्रिंकलर के द्वारा पानी से मिट्टी की अच्छी तरह संतृप्त कर देते हैं। रोपाई से पूर्व रनर की जड़ों को वाबिस्टीन के 0.1 प्रतिशत घोल में 5-10 मिनट तक डुबा लेते हैं।

फसल प्रबंध एवं खरपतवार नियंत्रण
स्ट्राबेरी का पौधा और फल बहुत नाजुक होता है अत: उसे विशेष प्रबंध की आवश्यकता होती है। मल्चिंग से पूर्व फसल की 25 दिन के अंतराल पर निराई-गुड़ाई करें। यदि फसल खरपतवारों से मुक्त है तो रोपाई के 30 दिन बाद केवल एक गुड़ाई पर्याप्त होती है। यदि खेत में मोथा का प्रकोप है तो उसे खेत की तैयारी के समय किसी प्रभावकारी खरपतवार नाशी (राउंड अप या लीडर 3 लीटर प्रति एकड़) का प्रयोग करके नष्ट कर लें उसके बाद ही फसल लगायें।

रोपाई के 50 दिन बाद फसल की मल्चिंग कर देते हैं। इस काम के लिए सस्ती कीमत वाली काली पालीथीन का प्रयोग करते हैं। क्यारी की लम्बाई व चौड़ाई के अनुसार पालीथीन की पट्टियाँ बना कर उसमें ब्लेड की सहायता से छेद बनाकर पौधों को छेद से ऊपर निकालते हुए अच्छी तरह बिछा देते है। काली पालीथीन के लगाने से खरपतवारों का विनाश, पानी का संरक्षण तथा सर्दी में भूमि का तापवर्धन होता है। मल्चिंग के लिए पालीथीन के स्थान पर धान के पुआल का प्रयोग कर सकते हैं।

पैकिंग एवं विपणन
अत्याधिक नाजुक होने की वजह से स्ट्राबेरी के फलों को छोटे एवं पारदर्शी प्लास्टिक के डिब्बे (प्लास्टिकनेट) में पैक करते हैं। एक पनेट में 200 ग्राम फल भरा जाता है। इन भरे हुए डिब्बों को गत्ते के दो टुकड़ों के बीच रखकर टेप से चिपका देते हैं। इस प्रकार से पैक किये गये डिब्बों को सड़क एवं रेलमार्ग द्वारा दूरस्थ स्थानों तक पहुँचाया जाता है। सुरक्षित एवं क्षति रहित परिवहन एवं विपणन के लिए वातानुकूलित वाहनों को प्रयोग में लाते हैं। तुडाई के बाद यथाशीघ्र फलों का विपणन करना पड़ता है। यदि तुड़ाई के बाद फलों को शीत गृह में नहीं रखा जाता है तो वे 2 दिन में ही खराब हो जाते हैं।

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