व्याख्या।रसखान।अति लोक की लाज

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व्याख्या। रसखान।अति लोक की लाज

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अति लोक की लाज समूह में छौरि के राखि थकी वह संकट सों।
पल मैं कुलकानि की मेड नखी नहिं रोकी रुकी पल के पट सों।
रसखानि सु केतो उचाटि रही उचटी न संकोच की औचट सों।
अलि कोटि कियो हटकी न रही अटकी अँखिया लटकी लट सों।।

शब्दार्थ -समूह मै=भीड़ में ही। मेड=सीमा। नखी = लॉंघ दी । पल के पट सो= पलक रूपी वस्त्र में । उचाटि = व्याकुल। औचट = ठेस, चोट , अवरोध।
अर्थ- कोई गोपी अपनी सखी से कृष्ण के रूप के प्रभाव का वर्णन करती हुई कहती है कि हे सखि! भीड़ में ही अत्यधिक लोक की लाज को छोडकर मैं अत्यन्त संकट में पड़कर थक गई, क्यांकि उस समय भी मैं अपने मन को काबू मे न रख सकी। कृष्ण को देखते ही क्षण-भर में ही कुल की मर्यादा की सीमा मैंने लॉघ दी, अर्थात् कुल-लाज को छोड़ दिया । मेरी दृष्टि पलकों के वस्त्र में भी नहीं रुक सकी । रसखान कहते हैं कि मैं चाहे जितनी व्याकुल रही, पर मैं संकोच की चोट से पृथक् न हो सकी, अर्थात् संकोच किये बिना न रह सकी । हे सखि ! मैने करोड़ां प्रयत्न किये, पर स्वयं को न रोक सकी और मेरी आँखें कृष्ण की लटकती हुई कु तल-राशि में उलझ गई ।
अलंकार= अ, क, ल और र की आवृत्ति के कारण छेकानुप्रास अलंकार है।

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