Class 9.01। उपादेय विज्ञान - मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ क्या है ? सूत्र 1

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Class 9.01 summary

पिछले अध्यायों में हमने जीव-अजीव, आस्रव और बन्ध तत्त्वों को जाना।
नौंवे अध्याय में हम संवर और निर्जरा को जानेंगे।
इनका कारण व्रत होते हैं,
और ये मुख्यतया मुनियों के होती हैं।
जहाँ आस्रव और बन्ध-तत्त्व हेय हैं,
वहाँ संवर और निर्जरा उपादेय हैं क्योंकि
आत्मा में इनके अच्छी तरह से होने पर ही,
हम मोक्ष की ओर बढ़ते हैं।
पहला सूत्र “आस्रव निरोधः संवर:” में हमने संवर की परिभाषा जानी-
आस्रव को रोकना संवर होता है।
आस्रव के दो भेद हैं-
भावास्रव
और द्रव्यास्रव
इन दोनों को रोकने से संवर के भी दो भेद होते हैं
भाव-संवर,
और द्रव्य-संवर
आगामी कर्मों को रोकना संवर होता है,
और पूर्व-बद्ध कर्मों को बाहर निकालना निर्जरा।
सूत्रों में बहुत अर्थ भरा होता है,
बिना उसकी भूमिका समझें, हम उसे रट तो सकते हैं,
पर समझ नहीं पाते।
सूत्र ने बताया कि आस्रव को रोकना संवर है,
और इसकी व्याख्या बताती है कि-
वह कौन रोके?
किससे रोके?
किस चीज़ को पहले रोकना हो?
अध्याय 6 में हमने जाना था कि
मन-वचन-काय के योग आस्रव हैं।
इन्हें रोकना संवर होता है।
पर, मात्र इन्हें रोकने से मोक्ष नहीं होता।
मन-वचन-काय की क्रियाएं तो कोई भी रोक सकता है।
सबसे पहले मोह का संवर जरुरी है,
उसके बिना योगों का संवर व्यर्थ है।
सारे गुणस्थान मोह और योग पर ही depend करते हैं।
हम पहले जान चुके हैं कि आस्रव और बन्ध एक समयवर्ती होते हैं-
जिन कारणों से आस्रव होता है, उन्हीं से बन्ध होता है।
दोनों के कारणों का संवर जरुरी है।
बन्ध रोकने के लिए बन्ध के हेतु रोकने होते हैं,
जिसमें सर्वप्रथम मिथ्यात्व आता है।
मिथ्यात्व-कर्म के बन्ध का कारण रोकने से
मिथ्यात्व का अभाव होना, उसका संवर कहलाता है।
सर्वप्रथम संवर मिथ्यात्व का ही होता है।
यह ‘मिथ्यात्व’ नामक पहले गुणस्थान में नहीं, बल्कि उससे ऊपर उठने पर होता है।
हम अनादि काल से पहले गुणस्थान में ही हैं,
उसके छूटने पर ही हमारी progress शुरू हो पाएगी।
मिथ्यात्व तो एक कारण है पर
इसके साथ अनेक प्रकृतियाँ जुड़ी होती हैं।
बन्ध, बन्ध-व्युच्छित्ति, अबन्ध-प्रकृतियाँ,
इनके संवर, गुणस्थान आदि कर्मकाण्ड जी के अनुसार जाने जा सकते है
एक मिथ्यात्व के साथ सोलह प्रकृतियाँ रूकती हैं।
सिद्धांत से theory समझ कर,
एकान्त, विपरीत, अज्ञान, वैनयिक, संशय- मिथ्यात्व -छोड़ने पर भी,
तत्त्व का श्रद्धान करने पर भी,
हमारा मिथ्यात्व पूरी तरह नहीं छूटता।
मिथ्यात्व का practical हम अध्यात्म ग्रंथों से सीख सकते हैं।
आत्मा की 3 states होती हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।
मिथ्यादृष्टि जीव बहिरात्मा होता है,
देह और जीव को एक मानता है।
उसकी आत्मा, आत्मा को छोड़कर बाहर-बाहर घूमती है
अर्थात् आत्मा का ज्ञान उसको नहीं होता। उसका ज्ञानोपयोग
आत्मा को आत्मा न मानकर,
अन्य सब चीज़ों में अपनापन मानकर,
बाहर की पूरी दुनिया को,
शरीर से लेकर पूरे संसार को-
अपना मानता है।
इसके विपरीत, अंतरात्मा देह और जीव को अलग जानता है।
हम अनादि-काल से बहिरात्मा बने हुए हैं।
जब तक बहिरात्मपना है, तब तक मिथ्यात्व।
मिथ्यात्व का संवर करने के लिए-
बहिरात्म-वृत्ति को अन्तरात्म-वृत्ति में बदलना ही
हमारा सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।
हम सीधे बहिरात्मा से परमात्मा नहीं बनते।
मिथ्यात्व छूटने से हम सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा बनते हैं।
तत्त्व जैसा लिखा है वैसा हूबहू, A to Z, स्वीकारने से तत्त्व श्रद्धा नहीं आती,
इससे सिर्फ ज्ञान होता है।
जब हमारे ज्ञानोपयोग में हमारी ही ज्ञान आत्मा का श्रद्धान हो,
अपने से भिन्न शरीर आदि का अपने से भिन्न रूप में ही श्रद्धान हो-
तब जीव और अजीव का श्रद्धान शुरू होता है।
इसी difference के श्रद्धान से तत्त्व-श्रद्धा शुरू होती है-
शेष आस्रव, संवर आदि सभी तत्त्व इसी से जुड़े होते हैं।


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