कुण्डलिनी महाभागं पूर्णत्वं जीवनं परं,
सर्व सिद्धि प्रदाय त्वम परं सौभाग्यं जायतेl
जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है, कि हम अपने आंतरिक जीवन को उस ब्रह्मत्व तक पहुंचा दें, जिसको वेदों ने नेति-नेति कह कर पुकारा है। जीवन के दो भाग हैं-पहला बाह्य भाग और दूसरा आंतरिक भाग। बाह्य
भाग के माध्यम से हम भौतिक जीवन की यात्रा सम्पन्न करते हैं, भोग, विलास, ऐश, आराम, सुख, पुत्र, सम्पत्ति, ऐश्वर्य, रोग, बीमारी, कष्ट, तनाव, पीड़ा, चिन्ता ये सभी जीवन के बाह्य भाग हैं। ये भी जीवन के लिए आवश्यक हैं, मगर इससे भी उच्चस्तरीयकार्य जीवन के आंतरिक पक्ष है, जिसको अभी तक समझा ही नहीं गया है। वैज्ञानिक केवल बाह्य भाग देख कर ही उसका उपचार करने में लगे हैं, नई नई दवाइयां इजाद हो रही हैं, सुख-सुविधाओं के नये नये साधन उपलब्ध हो रहे हैं,मगर इसके बावजूद भी व्यक्ति दुखी है, पीड़ित है, चिंता है, समस्याओं से ग्रस्त है, जो सही अर्थों में आनन्द की उपलब्धि होनी चाहिए, वह उसे प्राप्त नहीं हो पा रही है.. और यदि जीवन में आनन्द ही प्राप्त नहीं हुआ, तो जीवन का अर्थ ही व्यर्थ हो जायेगा । हमसे तो प्रयत्न करके प्राप्त कर सकते हैं, अच्छा आलीशान मकान बना सकते हैं, एयर कण्डीशनर लगा सकते हैं, बिजली लगवा सकते हैं, रेडियो, ट्रांजिस्टर रख सकते हैं या सुन्दरतम वस्त्र, अच्छे होटल...येसभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि
ये सभी चीजें खरीदी जा सकती है, मगर.. - क्या इन सभी वस्तुओं से आदमी चिन्ता से मुक्त हो सकता है ? -क्या इन सभी वस्तुओं से आदमी जीवन में ऊंचाई पर उठ सकता है ? -क्या इन सभी वस्तुओं से जीवन में जो उल्लास, उमंग आनी चाहिए,
वह आ पाती है?
ऐसा सम्भव नहीं है. यदि ऐसा सम्भव होता, तो व्यक्ति आनन्द को भी खरीद लेता. ...मगर आनन्द कोई वस्तु नहीं है जिसे खरीदा जा सके । इतनी सुख-सुविधाएं होने के बाद भी आदमी चिन्तातुर रहता है, भयग्रस्त रहता है, हर समय आशंकित सा रहता है।
आंतरिक पक्ष को यदि हम प्रयत्नपूर्वक देखें, यदि हम अंदर उतरने का
प्रयास करें, तो हमें एहसास होगा, कि वास्तव में बाह्य जगत की अपेक्षा आंतरिक जगत की यात्रा जीवन की श्रेष्ठतम यात्रा है। जब व्यक्ति आंतरिक जगत की यात्रा अर्थात मूलाधार से लेकर सहस्रार तक की यात्रा सम्पन्न कर लेता है, तोज्यों-ज्यों वह ऊंचाई की ओर उठता है, ज्यों-ज्यों एक चक्र से दूसरे, दूसरे से तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें चक्र तक पहुंचता है, त्यों-त्यों उसे आनन्द की अनुभूति होने लगती है, बाहरी सुख उसके लिए व्यर्थ हो जाते हैं, गृहस्थ में रहते हुए गृहस्थ के कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वह अपने ही आनन्द में मग्न हो जाता है, उसको ऐसा विशाल क्षेत्र मिल जाता है, जो जीवन का श्रेष्ठ भाव है। और इस यात्रा को ही कुण्डलिनी यात्रा कहा गया है।
परम पूज्य सदगुरु डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी
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