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Скачать или смотреть समुद्र मंथन की कथा / देवराज इंद्र को ऋषि दुर्वासा का श्राप/ माँ लक्ष्मी का प्राकट्य / कालकूट विष ||

  • Story Guruji
  • 2023-10-23
  • 612
समुद्र मंथन की कथा / देवराज इंद्र को ऋषि दुर्वासा का श्राप/ माँ लक्ष्मी का प्राकट्य / कालकूट विष ||
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Описание к видео समुद्र मंथन की कथा / देवराज इंद्र को ऋषि दुर्वासा का श्राप/ माँ लक्ष्मी का प्राकट्य / कालकूट विष ||

जानिए क्यों किया दैत्य और देवताओं ने मिलकर समुद्र मंथन ||
देवराज इंद्र को महर्षि दुर्वासा का श्राप ||

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समुद्र मंथन एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पौराणिक घटना है। समुद्र मंथन की ये कथा विष्णु पुराण से ली गयी है जिसमें अमृत की प्राप्ति के लिए देवताओं और दैत्यों ने मिलकर संघर्ष किया था।
एक बार भगवान शिव के अंशावतार महर्षि दुर्वासा पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे।

घूमते-घूमते उन्होंने एक विद्याधरी के हाथों में पुष्पों की एक दिव्य माला देखी। उनके माँगने पर उस विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक वह माला दे दी। दुर्वासा मुनि ने उस माला को अपने मस्तक पर धारण किया और पृथ्वी पर विचरने लगे। उसी समय उन्होंने ऐरावत पर विराजमान देवराज इन्द्र को आते देखा। दुर्वासा मुनि ने वह माला अपने सिर से उतारकर आदरपूर्वक देवराज इन्द्र को भेंट कर दी।

देवराज होने के अहंकार में इंद्र ने वह माला अपने वाहन ऐरावत के सर पे रख दी, उसकी गंध से आकर्षित होकर ऐरावत ने उसे अपनी सूंढ़ से सूंघकर भूमि पर फेंक दिया। यह देखकर दुर्वासा मुनि अत्यंत क्रोधित हुए और देवराज इन्द्र से बोले।

हे इन्द्र, अहंकारवश आपने मेरी दी हुई इतनी सुन्दर माला का तनिक भी आदर नहीं किया, निश्चित ही आपने मुझे अन्य मुनियों के समान ही समझा है, इसीलिए आपने हमारा इस प्रकार अपमान किया है। मैं ये श्राप देता हूं, आपका त्रिलोकी का वैभव नष्ट हो जायेगा। आपने मेरी दी हुई माला को पृथ्वी पर फेंका है इसलिए आपका यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायेगा।

यह सुनकर इन्द्र तुरंत ऐरावत से उतरकर दुर्वासा जी से क्षमा मांगने लगे, परन्तु दुर्वासा ऋषि ने क्रोध के कारण इंद्र को क्षमा नहीं किया। और वहाँ से चल दिए। इस प्रकार दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण इन्द्र सहित तीनों लोक श्रीहीन और नष्ट होने लगे। यज्ञों का होना बंद हो गया, तपस्वियों ने तप करना छोड़ दिया और लोगों की दान धर्म में रुचि नहीं रही। जिससे समस्त देवता शक्तिहीन हो गए।

इस प्रकार सामर्थ्यहीन हो जाने पर दैत्यों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी और दोनों पक्षों में घोर युद्ध हुआ। अंत में दैत्यों द्वारा देवगन पराजित हुए। दैत्यों द्वारा पराजित होकर देवतागण क्षीर सागर में शयन करने वाले भगवान विष्णु के पास जाकर सहायता मांगने लगे। उनकी समस्या सुनकर त्रिलोकी के स्वामी श्रीहरि ने देवताओं से कहा, आप लोग असुरों से संधि कर लो तथा उनके साथ सम्पूर्ण औषधियां लाकर क्षीरसागर में डालो। तथा मंदराचल पर्वत को मथनी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाकर उसे दानवों सहित मेरी सहायता से मथकर अमृत निकालो।


त्रिदेव की आज्ञा से समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और समुद्र मंथन में सबसे पहले कालकूट विष निकला। भक्तवत्सल भगवान शिव ने संसार की रक्षा के लिए उस कालकूट विष को अपने कंठ में धारण किया और नीलकंठ कहलाये। पुनः कामधेनु गाय। उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा। ऐरावत हाथी। कल्प वृक्ष। माता लक्ष्मी। चन्द्रमा। पांचजन्य शंख। कौस्तुभ मणि। अप्सराएं। वारुणी मदिरा। पारिजात। भगवान धन्वन्तरि और अमृत निकले। इस प्रकार क्षीरसमुद्र से 14 रत्न उत्पन्न हुए।

इस प्रकार शाप से श्रीहीन और शक्तिहीन हुए देवताओं ने अमृत का पान करके दैत्यों पर आक्रमण किया और उन्हें पराजित कर स्वर्ग का राज्य पुनः प्राप्त कर लिया।

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