शांति के दोहे। shanti ke dohe .

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भक्त वत्सल भय हरन हरि, करूणा शील निधान।
कह टेऊँ कलि काल में, लाज राख भगवान॥

2. हे समर्थ सर्वज्ञ हरि, दीन बंधु दातार।
कह टेऊं कृपा करे, दे शुभ गुणन भण्डार।

3. मैं मांगत नहिं और कुछ, संत दरस हरि देह।
कह टेऊँ दर्शन करे, सफल करूं तन एह॥

4. इन्द्रराज वैकुण्ठ सुख, नहिं मांगू धन धाम।
कह टेऊँ मुझ दीजिये, हे हरि अपना नाम॥

5. जितने कणके रेत के, उतने अवगुण मोह।
कह टेऊँ गुरू बख्श ले, शरण पड़ा हूँ तोहि ॥

6. सतगुरू मझको दान दे, प्रेम भक्ति विश्वास।
कह टेऊँ नित सुमति दे, सन्तन माहिं निवास॥

7. सतगुरू तुम पूरण करो, मेरी यह अर्दास।
कह टेऊँ मन में कभी, रहे न जग की आस॥

8. सतगुरू आत्मज्ञान दे, हरो देह अभिमान।
कह टेऊँ सब घट विषे, दिखलाओं भगवान॥

9. रे मन राखो राम में, पूरण तुम विश्वास।
कह टेऊँ विश्वास से, होवे सब दुख नास॥

10. राम भरोसा राख तुम, और भरोसा त्याग।
कह टेऊँ हरि शरण ले, खोलो अपना भाग॥

11. चिन्ता भोजन वसन की, टेऊँ करते काहिं।
हरि विश्वम्भर दे सबहिं, क्या तुम देवहिं नाहि॥

12. उदर भरण के कारने, भटकत काहिं अजान।
त्यागे चिन्ता पेट की, सुमरो श्री भगवान॥

13. कह टेऊँ संसार में, बात यही है सार।
भजन करो भगवान का, छोड़ो विषय विकार॥

14. कह टेऊँ हरि नाम जप, भूलो ना क्षण एक।
भोगत भोगत विषय रस, बीते जन्म अनेक॥

15. मात गर्भ में तुम किया, हरि से जो इकरार।
कह टेऊँ तिहं याद कर, सुमरो सत्कर्तार॥

16. मन बुद्वि इन्द्रिय प्राण धन, जिहं दीनी नर देह।
कह टेऊँ तिस राम का, नित सुमरण कर लेह॥

17. पूर्ण पुण्य ते पाइया, मानुष का अवतार।
कह टेऊँ तिहं सफल कर, सुमरे सृजणहार॥

18. चौरासी लख योनि का, मानुष है सिरताज।
कह टेऊँ हरि भजन का, कर इस तन में काज॥

19. गफ्लत में न गंवाइये मानुष देह महान।
कह टेऊँ तुम जाग के, भज ले श्री भगवान॥

20. कह टेऊँ तुम चेत ले, अब कुछ बिगडी नाहिं।
दया धर्म शुभ कर्म कर, हरि सुमरो मन माहिं॥

21. सोए अविद्या नींद में, कह टेऊँ बहु काल।
अब तो गफ्लत छोड़ के, सुमरो दीन दयाल।

22. हरि सुमरो तुम जाग के, सोय न निद्रा माहिं।
कह टेऊँ जागे बिना, हरि दर्शन दे नाहिं॥

23. अमृत वेले ऊठ के, छोड़ कल्पना काम।
कह टेऊँ हरि ध्यान धर, सुमरो गुरू का नाम॥

24. प्रात:काल जो ऊठ के, करत हरी गुण गान।
कह टेऊँ सो जगत में, होवत संत सुजान॥

25. निशदिन कर शुभ भावना, हरि को जान हजूर।
कह टेऊँ मन से करेा, अशुभ अशुभ भावना दूर॥

26. नीच ऊँच निर्धन धनी, सब में लख कर्तार।
कह टेऊँ शुद्ध भाव से, सबका कर सत्कार ॥

27. बुरा भला जिन भाव ही, सबको सुख दुख देत।
कह टेऊँ दे और नाहिं, फलत भाव का खेत॥

28. बुरा किसी का ना करो, सबका भला विचार।
टेऊँ बुराई जो करे,तांका कर उपकार॥

29. कल्प वृक्ष है आत्मा, कह टेऊँ सब माहिं।
जांकी जैसी भावना, तेसा फल दे ताहिं॥

30. मन पर साक्षी होय तुम, धर विवेक वैराग।
कह टेऊँ जे दोष है, तांका करो त्याग॥

31. थोड़े जीवन हेतु तुम, करो न पाप अजान।
कह टेऊँ मन जीत कर, पुण्य करो प्रधान ॥

32. निश्चल मन से मिलत है, निश्चल आत्म राम।
टेऊँ मन निश्चल करें, पाओं सुख का धाम॥

33. इष्ट देव भगवान की, करे उपासना जोय।
कह टेऊँ तिस मनुष्य का, निश्चल शुद्ध मन होय॥

34. कर्म धर्म जप ध्यान तप, योग यज्ञ व्रत दान।
कह टेऊँ हरि हेत कर, छोड ममत अभिमान॥

35. जप तप सेवा कर्म शुभ, तीरथ दान स्नान।
श्रद्धा बिन फल देत नहिं, कह टेऊँ सत् मान ॥

36. प्रेम बिना पहुंचे नही, को जन हरि के धाम।
कह टेऊँ तांते जपो, प्रेम सहित हरि नाम॥

37. प्रेम भाव से होत वश, भक्त वत्सल भगवान।
कह टेऊँ तांते करो, हरि से प्रेम प्रधान॥

38. जिन-जिन हरि के प्रेम में, दीना तन मन प्रान।
टेऊँ तिन के कदम पर, झुक झुक पड़त जहान॥

39. बेमुख हो कर्तार से,करत जगत से प्यार।
कह टेऊँ तिस मनुष का, कबहुं न होत उद्धार॥

40. संत गुरू परमात्मा, साचे संगी जान।
कह टेऊँ इन तीन से, करते प्रेम सुजान॥

41. हरि मेली है संत जन, हरि से देत मिलाय।
कह टेऊँ छोड़त नही जो जन शरनी आय॥

42. जैसे जल में रहत है, अहनिश कमल अलेप।
कह टेऊँ तिमि जगत में, संत रहत निर्लेप॥

43. संत राम में भेद नहिं, संत नाम स्वरूप।
कह टेऊँ रट नाम को, भये राम के रूप॥

44. स्वार्थ बिन सेवा करे, सबको दे सन्मान।
टेऊँ समता में रहे, सोई संत पछान॥

45. जग में जीते जो मरे, तजे देह अभिमान।
कह टेऊँ संसार में, सो नर मुक्ता मान॥

46. जीवित जग में मरत जो, तां पर छत्र झुलंत।
टेऊँ जग तिहं पूजते, जान रूप भगवंत॥

47. क्षमा जांके मन बसे, तिस हरि अंतर नाहिं।
कह टेऊँ सुर नर सभी, दर्शन चाहत ताहिं॥

48. क्रोध त्याग क्षमा धरे, सो है पूजन योग।
कह टेऊँ तिहं दरस ते, मिट जावत सब रोग॥

49. कली काल में कठिन है, योग यज्ञ तप ध्यान।
साधु संग हरि नाम से, टेऊँ हो कल्यान॥

50. संत समागम सम नही, साधन को जग माहिं।
कह टेऊँ बिन हरि कृपा, सत्संग मिलता नाहिं॥

51. पार करत भव सिन्धु से, सत्संग परम जहाज।
कह टेऊँ तामें चढ़ों, छोड जगत की लाज॥

52. सत्संग से सतगुरू मिले, सतगुरू से निज ज्ञान।
कह टेऊँ निज ज्ञान से, मिलहैं पद निर्बान॥

53. सत्गरू बुद्वि के नैन में, डारे अंजन ज्ञान।
कह टेऊँ तम भ्रम हर, दिखलावे भगवान॥
54. कह टेऊँ भगवान से, सतगुरू अधिक पछान।
कर्मों का फल देत हरि, गुरू दे मुक्ति दान॥

55. गुरू बिन रंग न लागहीं, गुरू बिना ज्ञान न होय।
कह टेऊँ सतगुरू बिना, मुक्ती न पावे कोय॥

56. पूरन सतगुरू देव से, पूरन ले उपदेश।
कह टेऊँ तिहं सुमर के, पाओ पूरन देश॥

57. सर्व व्यापक जान हरि, सबकी करिये सेव।
कह टेऊँ सब पाप हर, देखो आत्म देव॥

58. ब्रह्म आत्मा एक है, सत्चित आनन्द रूप।
कह टेऊँ ज्ञानी जिसे, जानत निज स्वरूप॥

59. साक्षी चेतन ब्रह्म का, सब घट में है वास।
कह टेऊँ शशि सूर्य में, तांका है प्रकाश॥

60. साक्षी चेतन रम रहा, जल थल पुनि आकाश।
कह टेऊँ तिहं जान के, पाओ सुख अविनाश॥

ॐ शांति शांति शांति।

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