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Скачать или смотреть Vah Unmukt Vilas Hua Kya | Kamayani- S01 Chinta 04 | Jaishankar Prasad | Hindi Literature | Kavita

  • कविता - Kavita
  • 2025-10-13
  • 35
Vah Unmukt Vilas Hua Kya | Kamayani- S01 Chinta 04 | Jaishankar Prasad | Hindi Literature | Kavita
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Hindi poetry, Hindi kavita, Hindi literature, Hindi music, Hindustani poetry, Modern Hindi poetry, Classical Hindi poetry, Hindi sahitya, Kavita path, Hindi shayari, Hindi poem recitation, Hindi kavita video, Kavita in Hindi, Hindi poets, Hindi sahitya channel यह कविता का अंश मानव जीवन की विलासिता, समृद्धि और अहंकार के उत्कर्ष और पतन की कहानी कहता है। यहाँ यह बताया गया है कि जब जीवन केवल सुख-सुविधाओं और भोग-विलास तक सीमित रह जाता है, तब वह वास्तविकता से कटकर स्वप्न और छलना में बदल जाता है। प्रकृति और शक्ति के बीच असंतुलन उत्पन्न होता है, और वही असंतुलन भयंकर आपदाओं को जन्म देता है।

कविता के अनुसार वह समय मानो उन्मुक्त विलास का युग था। सुख-समृद्धि इतनी अधिक थी कि जीवन तारों की चमक और देव-सृष्टि के मधुर गीत जैसा प्रतीत होता था। जीवन के हर श्वास में मधुरता और सुगंध फैली थी, कोलाहल में भी सुख का विश्वास मुखरित होता था।
सुख का यह संग्रह इतना केंद्रित हो गया कि जैसे नवतुषार (नयी बर्फ) के गहन मिलन से बनी हुई छवि हो। विश्व के सभी बल, वैभव और आनंद सब स्वतंत्र और स्वायत्त थे। उस समृद्धि की लहरें समुद्र की तरह उमड़ती रहती थीं। चारों ओर कीर्ति, दीप्ति और शोभा का नृत्य था, जो अरुण-किरणों की भाँति प्रकाशित करता था।
सप्तसिंधु के जलकण, वृक्ष-पत्र और प्रकृति का प्रत्येक अंश इस आनंद में विभोर था। शक्ति भी उनके चरणों में विनम्र हो विश्राम कर रही थी। धरणी उनके चरणों से काँपती थी, मानो उनका वर्चस्व सम्पूर्ण था।
मनुष्य स्वयं को देव समझने लगा था। इस देवत्व के अहंकार ने सृष्टि को बंधनों से मुक्त करके असंयमित बना दिया। यही कारण था कि अचानक आपदाएँ बरस पड़ीं।
परिणामस्वरूप सब कुछ नष्ट हो गया – मधुरता, देवांगनाओं का श्रृंगार, यौवन का मुस्कान और सुखद ठिकाना सब विलुप्त हो गया।

व्याख्या

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या, स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृष्टि की सुख-विभावरी, ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से, जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता, देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का, सघन मिलन होता जितना।

सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल, वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित लहरों-सा होता, उस समृद्धि का सुख संचार।

कीर्ति, दीप्ति, शोभा थी नचती, अरुण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी, पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर, प्रतिदिन ही आक्रांत।

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से, कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम, सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, मधुप-सदृश निश्चित विहार।


विलास और छलना – कविता बताती है कि असीम सुख और विलास कभी स्थायी नहीं होते। वे क्षणिक स्वप्न की भाँति हैं, जो मोहजाल में बाँधते हैं।
जीवन का मधुमय श्वास – यहाँ जीवन की सरलता और प्राकृतिक आनंद का संकेत है, जो विलासिता के चरम पर खो जाता है।
सुख का संग्रह – जब सुख एकत्रित होकर अत्यधिक केंद्रित हो जाता है, तो वह आत्म-विनाश का कारण बनता है, जैसे अति की बर्फ सब कुछ ढक देती है।
समृद्धि और कीर्ति – कविता दिखाती है कि वैभव और यश चारों ओर छा गए थे, परंतु यह वैभव अस्थायी था।
शक्ति का चरणों में विश्राम – इसका अर्थ है कि प्रकृति और धरती तक उनके अधीन थीं। परंतु यह संतुलन कृत्रिम था, जो स्थायी नहीं रह सका।
मनुष्य = देव – अहंकार में डूबकर मनुष्य ने स्वयं को देव समझ लिया। लेकिन जब प्रकृति असंयमित हो गई, तब वह आपदाओं से घिर गया।
विनाश का चित्रण – अंत में सब नष्ट हो गया। यह दर्शाता है कि अति विलास और अहंकार का अंत सदा विनाश होता है।

कठिन शब्दों के अर्थ

उन्मुक्त विलास – बंधनहीन ऐश्वर्य और सुख
विभावरी – रात्रि, रात का काव्यात्मक नाम
कलना – शोभा, सौंदर्य की आभा
अंचल – आंचल, यहाँ सुगंधित हवा का बिंब
निश्वास – श्वास, सांस लेना-छोड़ना
कोलाहल – शोर-शराबा, हलचल
केंद्रीभूत – केंद्रित, एकत्रित
तुषार – बर्फ, हिमकण
सघन मिलन – गहन संपर्क या एकजुट होना
स्वायत्त – स्वतंत्र, स्वयं नियंत्रित
उद्वेलित – उफनता हुआ, जोश में आया
दीप्ति – चमक, प्रकाश
अरुण-किरण – उगते सूरज की लालिमा
सप्तसिंधु – सात नदियों का समूह
विभोर – आनंद में डूबा हुआ
धरणी – पृथ्वी
विश्रृंखल – असंयमित, अनुशासनहीन
आपदा-वृष्टि – आपदाओं की बरसात
विभव – ऐश्वर्य, वैभव
श्रृंगार – सजावट, अलंकरण
विहार – ठहराव, विश्राम का स्थान

इस कविता का केंद्रीय संदेश है कि अत्यधिक सुख, विलासिता और अहंकार का अंत सदैव विनाश और पीड़ा में होता है। संतुलन और संयम ही जीवन की वास्तविक शक्ति है। परिचय – जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद (1889–1937) हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि, नाटककार, कथाकार और उपन्यासकार थे। वे छायावाद युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। काशी (वाराणसी) में जन्मे प्रसाद ने हिंदी साहित्य को नई दिशा और ऊँचाई प्रदान की।

उनकी काव्य-रचनाएँ भावुकता, कोमलता, प्रकृति-प्रेम, रहस्य और दर्शन से परिपूर्ण हैं। उनकी महान कृति ‘कामायनी’ हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर मानी जाती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘चंद्रगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसे नाटक और कई कहानियाँ व उपन्यास भी लिखे, जिनमें इतिहास, संस्कृति, राष्ट्रभक्ति और मानवीय संवेदनाएँ झलकती हैं।

जयशंकर प्रसाद का साहित्य न केवल सौंदर्यबोध जगाता है, बल्कि भारतीय संस्कृति और मानवीय जीवन-दर्शन को भी गहराई से प्रस्तुत करता है। उन्हें हिंदी साहित्य का “कलम का जादूगर” कहा जाता है।

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