श्रीमद भगवद गीता सार के 15 मिनट में जीवन बदल दें!

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इस वीडियो में, हम आपको श्रीमद भगवद गीता के सार को 15 मिनट में बताएंगे जो आपके जीवन को बदल सकता है! इसमें आध्यात्मिक जागरूकता, कर्म और ध्यान, आत्मसमर्प
इस वीडियो में, हम श्रीमद भगवद गीता के सार को 15 मिनट में समझाएंगे और आपके जीवन को बदलेंगे! यह वीडियो देखना न भूलें। धन्यवाद।इस वीडियो में हम श्रीमद भगवद गीता के महत्वपूर्ण संदेशों का सार प्रस्तुत करेंगे, जो आपके जीवन को 15 मिनट में बदल सकते हैं! यह आध्यात्मिक जागरूकता, कर्म और#BhagavadGita #Chapter4 #GyanKarmaSanyasYoga #DivineKnowledge #SelfRealization #SpiritualWisdom #KarmaYoga #KrishnaTeachings #HinduScriptures #GeetaEssence#BhagavadGitaChapter4 #KarmaAndKnowledge #WisdomOfKrishna #GitaSaar #SelfAwareness #SpiritualGrowth #DivineWisdom #GyanAndKarma #YogaOfKnowledge #KrishnaGitaTeachings#भगवदगीताअध्या4 #ज्ञानकर्मसंन्यासयोग #भगवानकृष्णकीसिख #गीतासार #आध्यात्मिकज्ञान #कर्मयोग #स्वयंकीअवधारणा #ग्यानऔरकर्म #भगवदगीता #आध्यात्मिकविकास

भगवान कहते हैं ,इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥ श्री भगवान ने कहा - मैंने इस अविनाशी योग-विधा का उपदेश सृष्टि के आरम्भ में विवस्वान (सूर्य देव) को दिया था, विवस्वान ने यह उपदेश अपने पुत्र मनुष्यों के जन्म-दाता मनु को दिया और मनु ने यह उपदेश अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को दिया। एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त इस विज्ञान सहित ज्ञान को राज-ऋषियों ने बिधि-पूर्वक समझा, किन्तु समय के प्रभाव से वह परम-श्रेष्ठ विज्ञान सहित ज्ञान इस संसार से प्राय: छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया। स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥ आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग (आत्मा का परमात्मा से मिलन का विज्ञान) तुझसे कहा जा रहा है क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय मित्र भी है, अत: तू ही इस उत्तम रहस्य को समझ सकता है। अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥अर्जुन ने कहा - सूर्य देव का जन्म तो सृष्टि के प्रारम्भ हुआ है और आपका जन्म तो अब हुआ है, तो फ़िर मैं कैसे समूझँ कि सृष्टि के आरम्भ में आपने ही इस योग का उपदेश दिया था?बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ श्री भगवान ने कहा - हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं, मुझे तो वह सभी जन्म याद है लेकिन तुझे कुछ भी याद नही है।अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ यधपि मैं अजन्मा और अविनाशी समस्त जीवात्माओं का परमेश्वर (स्वामी) होते हुए भी अपनी अपरा-प्रकृति (महा-माया) को अधीन करके अपनी परा-प्रकृति (योग-माया) से प्रकट होता हूँ। यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ हे भारत! जब भी और जहाँ भी धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं अपने स्वरूप को प्रकट करता हूँ। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ भक्तों का उद्धार करने के लिए, दुष्टों का सम्पूर्ण विनाश करने के लिए तथा धर्म की फ़िर से स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥
हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अलौकिक) हैं, इस प्रकार जो कोई वास्तविक स्वरूप से मुझे जानता है, वह शरीर को त्याग कर इस संसार मे फ़िर से जन्म को प्राप्त नही होता है, बल्कि मुझे अर्थात मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ आसक्ति, भय तथा क्रोध से सर्वथा मुक्त होकर, अनन्य-भाव (शुद्द भक्ति-भाव) से मेरी शरणागत होकर बहुत से मनुष्य मेरे इस ज्ञान से पवित्र होकर तप द्वारा मुझे अपने-भाव से मेरे-भाव को प्राप्त कर चुके हैं। ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जिस भाव से मेरी शरण ग्रहण करता हैं, मैं भी उसी भाव के अनुरुप उनको फ़ल देता हूँ, प्रत्येक मनुष्य सभी प्रकार से मेरे ही पथ का अनुगमन करते हैं। काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ इस संसार में मनुष्य फल की इच्छा से (सकाम-कर्म) यज्ञ करते है और फ़ल की प्राप्ति के लिये वह देवताओं की पूजा करते हैं, उन मनुष्यों को उन कर्मों का फ़ल इसी संसार में निश्चित रूप से शीघ्र प्राप्त हो जाता है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥
प्रकृति के तीन गुणों (सत, रज, तम) के आधार पर कर्म को चार विभागों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में मेरे द्वारा रचा गया, इस प्रकार मानव समाज की कभी न बदलने वाली व्यवस्था का कर्ता होने पर भी तू मुझे अकर्ता ही समझ।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते
कर्म के फल में मेरी आसक्ति न होने के कारण कर्म मेरे लिये बन्धन उत्पन्न नहीं कर पाते हैं, इस प्रकार से जो मुझे जान लेता है, उस मनुष्य के कर्म भी उसके लिये कभी बन्धन उत्पन्न नही करते हैं।एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥ पूर्व समय में भी सभी प्रकार के कर्म-बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों ने मेरी इस दिव्य प्रकृति को समझकर कर्तव्य-कर्म करके मोक्ष की प्राप्ति की, इसलिए तू भी उन्ही का अनुसरण करके अपने कर्तव्य का पालन कर।

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