जय माँ छिन्नमस्तिके......🙏🙏
छिन्नमस्तिका मंदिर का रहस्य
माँ छिन्नमस्तिका मंदिर, जो झारखंड के रामगढ़ जिले में रजरप्पा नामक स्थान पर स्थित है, हिंदू धर्म के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है। यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है (पहला असम का कामाख्या मंदिर है)। रजरप्पा, भैरवी (भेड़ा) और दामोदर नदियों के संगम पर बसा यह मंदिर लगभग 6000 वर्ष पुराना है और वेदों तथा पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है। यहाँ की देवी छिन्नमस्तिका दस महाविद्याओं में छठी देवी हैं, जिनका स्वरूप अत्यंत रहस्यमय और विकराल है। आइए, इस मंदिर के रहस्यों को विस्तार से समझें।
मंदिर का इतिहास और महत्व
स्थान और संरचना: रांची से लगभग 80 किलोमीटर दूर स्थित यह मंदिर एक छोटी पहाड़ी पर है। मंदिर की उत्तरी दीवार पर एक शिलाखंड में देवी का दिव्य रूप अंकित है, जो दक्षिण की ओर मुख करके विराजमान हैं। प्राचीन काल में यह मेधा ऋषि की तपोस्थली था। पुराणों के अनुसार, यह शक्तिपीठ सती के शरीर के अंग गिरने से जुड़ा है, जहाँ देवी का सिर कटा हुआ रूप प्रकट हुआ।
अन्य मंदिर: मुख्य मंदिर के अलावा यहाँ महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंगबली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर जैसे कुल 7 अन्य मंदिर हैं। यहाँ कुंड भी हैं, जैसे मुंडन कुंड (मुंडन के लिए), पापनाशिनी कुंड (रोगमुक्ति के लिए) और दामोदर औषध कुंड (रोग निवारण के लिए)।
विशेषताएँ: मंदिर की वास्तुकला तांत्रिक महत्व की है, जो कामाख्या मंदिर से मिलती-जुलती है। यहाँ गर्म पानी का झरना भी है, जो सर्दियों में पिकनिक स्पॉट बन जाता है। भक्तों की मान्यता है कि पूर्ण श्रद्धा से दर्शन करने पर सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। भक्त लाल धागा बाँधते हैं।
देवी छिन्नमस्तिका का स्वरूप और रहस्य
देवी छिन्नमस्तिका का स्वरूप सबसे बड़ा रहस्य है – वे नग्न अवस्था में, बिखरे बालों के साथ, अपना सिर काटे हुए दिखाई देती हैं। दाहिने हाथ में कटा सिर और बाएँ हाथ में खड्ग (तलवार) लिए खड़ी हैं। उनके गले से तीन रक्तधाराएँ निकलती हैं: एक उनके मुख में, बाकी दो सहचरियों जया और विजया (या डाकिणी और वर्णिणी) के मुख में जाती हैं। वे कमल पर खड़ी हैं, नीचे कामदेव और रति के संभोगरत शरीर हैं। यह स्वरूप जीवन ऊर्जा (प्राण शक्ति), आत्म-बलिदान और काम-वासना पर विजय का प्रतीक है।
प्रतीकात्मक रहस्य:
आत्म-बलिदान: देवी का सिर काटना अहंकार त्याग और दूसरों के लिए त्याग का संदेश देता है। यह तांत्रिक साधना में काम, क्रोध और लोभ पर नियंत्रण सिखाता है।
रक्तधाराएँ: ये जीवन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं – देवी स्वयं को पोषण देकर अनंत ऊर्जा का प्रतीक बनती हैं।
खतरनाक पूजा: तंत्र ग्रंथों में कहा गया है कि उनकी पूजा साधारण भक्तों के लिए खतरनाक हो सकती है, क्योंकि यह विकराल रूप है। केवल तांत्रिक विद्वान ही इसे सुरक्षित रूप से कर सकते हैं। सैनिकों के लिए यह वीरता और निडरता का प्रतीक है।
उत्पत्ति की पौराणिक कथा
देवी की उत्पत्ति का रहस्य एक चमत्कारिक कथा से जुड़ा है। एक बार माँ पार्वती (या भगवती) अपनी सहचरियों जया-विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान कर रही थीं। सहचरियाँ भूख से व्याकुल हो गईं, उनका मुख पीला पड़ गया। माँ ने तुरंत अपनी तलवार से सिर काट लिया। कटा सिर उनके हाथ में आ गिरा, और गले से निकली तीन रक्तधाराओं ने माँ, जया और विजया को तृप्त किया। तभी से वे छिन्नमस्तिका कहलाईं। यह कथा आत्म-त्याग और मातृत्व की पराकाष्ठा दर्शाती है।
एक अन्य कथा के अनुसार, सती के शरीर के 51 टुकड़े गिरे, और रजरप्पा में उनका सिर गिरा, जिससे यह शक्तिपीठ बना।
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