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Скачать или смотреть जगत भगवान्‌ ही है और कुछ नहीं है। 42(B) - Swami Sri Sharnanand Ji Maharaj

  • Swami Sharnanandji Maharaj
  • 2021-10-20
  • 14635
जगत भगवान्‌ ही है और कुछ नहीं है। 42(B) - Swami Sri Sharnanand Ji Maharaj
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Описание к видео जगत भगवान्‌ ही है और कुछ नहीं है। 42(B) - Swami Sri Sharnanand Ji Maharaj

Swami Sri Sharnanand Ji Maharaj's Discourse in Hindi
स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज जी का प्रवचन

Swami Sri Sharnanand Ji Maharaj's Discourse in Hindi
स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज जी का प्रवचन

साधन जीवन है और जीवन साधन है। साधन और जीवन का विभाजन असाधन है। असाधन के त्याग में स्वतः साधन है। अब आप विचार करें कि जब जीवन ही साधन है, तो उसका विभाजन हो ही कैसे सकता है? यदि हमें अपने जीवन में और साधन में दूरी मालूम होती है, भेद मालूम होता है, तो इसका नाम ही असाधन है। असाधन का त्याग करना ही मानव का परम पुरुषार्थ है। यानी जिससे हमारी अभिन्नता नहीं हो सकती, जिससे हम अभेद नहीं हो सकते, उससे हम सम्बन्ध नहीं रखेंगे।
अब आप विचार करें कि जिसे आप असाधन के नाम से कहते हैं, क्या उससे आप अभेद हो सकते हैं? कोई ऐसा मिथ्यावादी हो सकता है जो सभी से झूठ बोले और सदैव झूठ बोले? मेरे विचार के अनुसार संसार में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा। तात्पर्य क्या निकला? असाधन से एकता नहीं हो सकती। तो जिससे हमारी एकता नहीं हो सकती, उसका हमें त्याग करना है।
अच्छा, क्या कोई व्यक्ति ऐसा कह सकता है कि शरीर और संसार की वस्तुओं से अपना विभाजन नहीं होगा? आपको पता है कि नहीं है, एक बेचारे के एक हाथ की अंगुलियाँ कट गई और एक हाथ कोहनी से कट गया। बताइये, यह कोई हमारे-आपके बस की बात है? इससे यह सिद्ध हुआ कि नहीं, कि हाथ से हमारा नित्य सम्बन्ध नहीं रह सकता? शरीर से हमारा-आपका नित्य सम्बन्ध नहीं रह सकता।
तो जिससे नित्य सम्बन्ध नहीं है, जिससे एकता नहीं हो सकती, उसके साथ एकता का भाव स्वीकार करना, यह क्या हुआ? यह असाधन हुआ। अब इसी दृष्टिकोण से आप और हम अपने-अपने जीवन को देखें और विचार करें कि हमारा नित्य सम्बन्ध किससे हो सकता है! किसी दोष के साथ किसी भी दोषी का नित्य सम्बन्ध नहीं है। यदि नित्य सम्बन्ध है, तो बताओ, वर्तमान में क्या दोष है? आप जिस दोष के सम्बन्ध में कहेंगे, वह भूतकाल का होगा। उसी के आधार पर आप अपने को वर्तमान में दोषी मानेंगे।
आप कहेंगे, क्या बताएँ, प्रीति जाग्रत नहीं होती। क्यों नहीं प्रीति जाग्रत होती? इस पर थोड़ा विचार करें। तो आपको मालूम होगा कि प्रीति तो जीवन में है। लेकिन किस भेष में है, यह देखना है। जिसे आप दोष कहते हैं, यह भी किसी की प्रीति है। जैसे वस्तु की प्रीति का नाम लोभ हो गया, किसी व्यक्ति की प्रीति का नाम मोह हो गया और किसी परिस्थिति की प्रीति का नाम काम हो गया। लेकिन किसी भी वस्तु से इतनी प्रीति नहीं है कि जिसके बिना न रह सकें। यदि ऐसा होता, तो सुषुप्ति कभी नहीं स्वीकार करते।
जब हम चौबीस घण्टे में कुछ समय के लिए सुषुप्ति स्वीकार करते हैं, तो इससे सिद्ध होता है कि जाग्रत और स्वप्न में जो व्यक्ति हैं, जो वस्तुएँ हैं, जो अवस्था है, उनका वियोग आपको अभीष्ट है। जब किसी भी व्यक्ति से, किसी भी वस्तु से हमारा-आपका नित्य सम्बन्ध रह ही नहीं सकता, तब केवल इतना ही प्रश्न रह जाता है कि वस्तु का सदुपयोग करें और व्यक्ति की सेवा करें।
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