योग का अर्थ,परिभाषा,उद्देश्य,प्रकार,महत्व

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योग का अर्थ
अधिकतर विद्वानों ने आध्यात्मिक क्षेत्र में योग शब्द का अर्थ प्रथम ‘‘धातु’’ युज समाधौ से ही निष्पन्न हुआ माना है । महर्षि व्यास भी योग शब्द का अर्थ करते हुए कहा है कि समाधि को ही योग कहते है । ‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के युजिर् धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-’सम्मिलित होना’ या ‘एक होना’। इस एकीकरण का अर्थ जीवात्मा तथा परमात्मा का एकीकरण अथवा मनुष्य के व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पक्षों के एकीकरण से लिया जा सकता है।

‘अमर कोश’ में इसका अर्थ- कवच, साम-दाम आदि उपाय, ध्यान, संगति, युक्ति है।

‘संस्कृत-हिन्दी कोश’ में इसका अर्थ- जोड़ना, मिलाना, मिलाप, संगम, मिश्रण, संपर्क, स्पर्श, संबंध है।



‘योग’ शब्द का सम्बन्ध ‘युग’ शब्द से भी है जिसका अर्थ ‘जोतना’ होता है, और जो अनेक स्थानों पर इसी अर्थ में वैदिक साहित्य में प्रयुक्त है। ‘युग’ शब्द प्राचीन आर्य-शब्दों का प्रतिनिधित्व करता है।


पाणिनी ने ‘योग’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘युजिर् योगे’ ,’युज समाधो’ तथा ‘युज् संयमने’ इन तीन धातुओं से मानी है। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार ‘योग’ शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग किया गया है।,

जैसे - जोड़ना, मिलाना, मेल आदि। इसी आधार पर जीवात्मा और परमात्मा का मिलन योग कहलाता है। इसी संयोग की अवस्था को “समाधि” की संज्ञा दी जाती है जो कि जीवात्मा और परमात्मा की समता होती है।

महर्षि पतंजलि ने योग शब्द को समाधि के अर्थ में प्रयुक्त किया है। व्यास जी ने ‘योग: समाधि:’ कहकर योग शब्द का अर्थ समाधि ही किया है।
योग की परिभाषा
योग की परिभाषा योग शब्द एक अति महत्त्वपूर्ण शब्द है जिसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया गया है।

1. पातंजल योग दर्शन के अनुसार- योगष्चित्तवृत्ति निरोध: अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

2. महर्षि पतंजलि-

‘योगष्चित्तवृत्तिनिरोध:’ यो.सू.1/2


अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त का तात्पर्य, अन्त:करण से है। बाह्मकरण ज्ञानेन्द्रियां जब विषयों का ग्रहण करती है, मन उस ज्ञान को आत्मा तक पहुँचाता है। आत्मा साक्षी भाव से देखता है। बुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है। इस सम्पूर्ण क्रिया से चित्त में जो प्रतिबिम्ब बनता है, वही वृत्ति कहलाता है।

यह चित्त का परिणाम है। चित्त दर्पण के समान है। अत: विषय उसमें आकर प्रतिबिम्बत होता है अर्थात् चित्त विषयाकार हो जाता है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है। योग का अर्थ
अधिकतर विद्वानों ने आध्यात्मिक क्षेत्र में योग शब्द का अर्थ प्रथम ‘‘धातु’’ युज समाधौ से ही निष्पन्न हुआ माना है । महर्षि व्यास भी योग शब्द का अर्थ करते हुए कहा है कि समाधि को ही योग कहते है । ‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के युजिर् धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-’सम्मिलित होना’ या ‘एक होना’। इस एकीकरण का अर्थ जीवात्मा तथा परमात्मा का एकीकरण अथवा मनुष्य के व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पक्षों के एकीकरण से लिया जा सकता है।



‘योग’ शब्द ‘युज’ धातु से बना है। संस्कृत व्याकरण में दो युज् धातुओं का उल्लेख है, जिनमें एक का अर्थ जोड़ना तथा दूसरे का मन: समाधि, अर्थात् मन की स्थिरता है। अर्थात् सामान्य रीति से योग का अर्थ सम्बन्ध करना तथा मानसिक स्थिरता करना है। इस प्रकार लक्ष्य तथा साधन के रूप में दोनों ही योग हैं। शब्द का उपयोग भारतीय योग दर्शन में दोनों अर्थों में हुआ है।

योग शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से लिया गया है। ‘पाणिनीयों धतु पाठ’ में योग का अर्थ- समाधि, संयोग एवं संयमन है।

‘अमर कोश’ में इसका अर्थ- कवच, साम-दाम आदि उपाय, ध्यान, संगति, युक्ति है।

‘संस्कृत-हिन्दी कोश’ में इसका अर्थ- जोड़ना, मिलाना, मिलाप, संगम, मिश्रण, संपर्क, स्पर्श, संबंध है।

‘आकाशवाणी शब्द कोश’ में इसका अर्थ- जुआ, गुलामी, बोझ, दबाव, बन्धन, जोड़ना, नत्थी करना, बाँध देना, जकड़ देना, जोतना, जुआ डालना, गुलाम बनाना लिया गया है।

‘मानक अंग्रेजी-हिन्दी कोश’ में योग का अर्थ- चिन्तन, आसन, बतलाया गया है। ‘शब्द कल्पद्रुम’ में योग का अर्थ- उपाय, ध्यान, संगति, है। ‘ए प्रक्टिकल वैदिक डिक्सनरी’ में योग शब्द का अर्थ- जोड़ना है। ‘उर्दू-हिन्दी शब्द कोश’ में योग शब्द का अर्थ- बैल की गर्दन पर रखा जाने वाला जुआ बतलाया गया है।

‘योग’ शब्द का सम्बन्ध ‘युग’ शब्द से भी है जिसका अर्थ ‘जोतना’ होता है, और जो अनेक स्थानों पर इसी अर्थ में वैदिक साहित्य में प्रयुक्त है। ‘युग’ शब्द प्राचीन आर्य-शब्दों का प्रतिनिधित्व करता है।

यह जर्मन के जोक, (Jock) ऐंग्लो-सैक्सन (Anglo-Saxon) के गेओक (Geoc), इउक (Iuc), इओक (Ioc), लैटिन के इउगम (Iugum) तथा ग्रीक जुगोन (Zugon) की समकक्षता या समानार्थकता में देखा जा सकता है। गणितशास्त्र में दो या अधिक संख्याओं के जोड़ को योग कहा जाता है।

पाणिनी ने ‘योग’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘युजिर् योगे’ ,’युज समाधो’ तथा ‘युज् संयमने’ इन तीन धातुओं से मानी है। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार ‘योग’ शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग किया गया है।,

जैसे - जोड़ना, मिलाना, मेल आदि। इसी आधार पर जीवात्मा और परमात्मा का मिलन योग कहलाता है। इसी संयोग की अवस्था को “समाधि” की संज्ञा दी जाती है जो कि जीवात्मा और परमात्मा की समता होती है।

महर्षि पतंजलि ने योग शब्द को समाधि के अर्थ में प्रयुक्त किया है। व्यास जी ने ‘योग: समाधि:’ कहकर योग शब्द का अर्थ समाधि ही किया है।
योग की परिभाषा
योग की परिभाषा योग शब्द एक अति महत्त्वपूर्ण शब्द है जिसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया गया है।

1. पातंजल योग दर्शन के अनुसार- योगष्चित्तवृत्ति निरोध: अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

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