रामानंद सागर कृत श्री कृष्ण भाग 70 - श्री कृष्ण की द्वारिका का निर्माण

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Ramanand Sagar's Shree Krishna Episode 70 - Shree Krishna Ki Dwarka Ka Nirmaan

कालयवन की मृत्यु होने के बाद भी मगध नरेश जरासंध बार बार मथुरा पर चढ़ाई करता रहा और परास्त होकर वापस जाता रहा। इस बीच बलराम और श्रीकृष्ण बड़े भी हो गये किन्तु जरासंध के आक्रमण बन्द नहीं हुए। बारम्बार युद्ध से मथुरा और आसपास की प्रजा भी त्रस्त हो चुकी थी। यह देखकर श्रीकृष्ण ने निर्णय लिया कि अब मथुरा से चले जाना ही उचित होगा। उन्होंने देवलोक के महाशिल्पी विश्वकर्मा से मथुरा से दूर एक नगर बसाने को कहा। विश्वकर्मा ने उन्हें बताया कि पश्चिमी दिशा में समुद्र के पास एक छोटा सा द्वीप है वहाँ एक पुरी का निर्माण हो सकता है। श्रीकृष्ण उन्हें समुद्रदेव के पास स्थान माँगने के लिये भेजते हैं और अपनी नये नगर का नाम द्वारिकापुरी रखने को कहते हैं। विश्वकर्मा उनका यह सन्देश लेकर समुद्रदेव के पास जाते हैं और उनसे कहते हैं कि जब प्रभु अपनी लीला समाप्त कर गोलोक वापस जायेंगे, तब यह भूमि आपको लौटा दी जायेगी। प्रभु की इच्छा जानकर समुद्रदेव अपना जल पीछे समेट लेते हैं और वहाँ एक द्वीप उभर आता है। विश्वकर्मा उस भूमि पर बैठकर शक्ति की देवी माँ दुर्गा की वन्दना करते हैं। माँ प्रसन्न होकर विश्वकर्मा के अन्तर्मन में कल्पना शक्ति का संचार करती हैं जिससे विश्वकर्मा को द्वारिकापुरी की आकृति दिखने लगती है। तत्पश्चात विश्वकर्मा सोने और माणिक से बनी द्वारिकापुरी का निर्माण करते हैं। देवराज इन्द्र भी देवलोक की सुधर्मासभा को द्वारिका में स्थापित कर अपना योगदान देते हैं। इस सुधर्मासभा में बैठने वालों को न भूख प्यास सताती है, न बुढ़ापा आता है और न मृत्युलोक का कोई नियम लागू होता है। इन्द्र के बाद यक्षराज कुबेर भी प्रभु के लिये अपना अक्षय पात्र अर्पण करते हैं। वह विश्वकर्मा से कहते हैं कि इस अक्षय पात्र को द्वारिका के ऊपर आकाश में स्थापित कर दें, इससे नगर में रहने वाले किसी प्राणी को किसी भी वस्तु अथवा सम्पदा की कमी नहीं रहेगी। द्वारिकापुरी का निर्माण पूरा होने पर श्रीकृष्ण देवशिल्पी विश्वकर्मा को वरदान देते हैं कि जब तक पृथ्वी पर द्वारिका का नाम रहेगा, यहाँ के शिल्पी आपको अपना भगवान मानकर पूजते रहेंगे। श्रीकृष्ण अब मथुरावासियों को तुरन्त द्वारिका भेजना चाहते हैं। इस पर विश्वकर्मा चिन्ता व्यक्त करते हैं कि इस समय शत्रुओं ने मथुरा को घेरा हुआ है तो प्रजा को बाहर कैसे निकाला जा सकता है। तब श्रीकृष्ण उन्हें आश्वस्त करते हैं कि मथुरा के बाहर शत्रुओं का घेरा बना रहेगा और तब भी मथुरावासी द्वारिका पहुँचा दिये जायेंगे। जरासंध मथुरा के बाहर घेरा डाले बैठा है। अबकी उसकी योजना युद्ध करने की नहीं है बल्कि मथुरा की खाद्यान्न आपूर्ति व्यवस्था बाधित करने की है ताकि मथुरा में भुखमरी फैल जाये। श्रीकृष्ण अपने महल में योगमाया का ध्यान करते हैं और उन्हें आदेश देते हैं कि वह मथुरा में रहने वाले समस्त भक्तों को अपने आंचल में समेट कर द्वारिका ऐसे पहुँचा दें कि उन्हें ऐसा लगा कि वे सदा से वहाँ रहते आये हों। योगमाया ऐसा ही करती हैं। सबको द्वारिका पहुँचाने के बाद श्रीकृष्ण और बलराम मथुरा में ही रुक कर जरासंध को कुछ खेल खिलाते हैं। वे आकाश मार्ग से भागना शुरू करते हैं। यह देखकर जरासंध भी अपनी सेना के साथ उनके पीछे भागता है। दोनों भाई उन्हें चिढ़ाने वाली हँसी हँसते जाते हैं। रास्ते में गोमान्तक पर्वत था। श्रीकृष्ण व बलराम उस पर्वत में छिप जाते हैं। जरासंध पहाड़ी को चारों ओर से घेरकर वहाँ आग लगा देता है। जरासंध और उसके साथी राजा यह सोचकर प्रसन्न हो जाते हैं कि कृष्ण और बलराम इस आग में जलकर मर गये होंगे। किन्तु दोनों भाई वहाँ से सुरक्षित निकल कर उस द्वारिकापुरी पहुँच जाते हैं। द्वारिका की भव्यता देखकर प्रसन्न बलराम श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि तुमने इस स्थान की तलाश कैसे की। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह द्वीप आपके ससुरालवालों की सम्पत्ति है। बलराम कुछ समझ नहीं पाते तो कृष्ण बताते हैं कि जिस राजकुमारी रेवती से आपका विवाह निश्चित हुआ है, यह स्थान कभी उनके दादा रेवतक की राजधानी रेवत हुआ करता था। तो यह आपके ससुराल वालों की सम्पत्ति हुई। जब श्रीकृष्ण बलराम के साथ द्वारिकापुरी में प्रवेश करते हैं तो नगर के ऊपर आकाश में खड़े होकर देवतागण, ऋषि मुनि उन्हें द्वारिकाधीश सम्बोधित करते हुए उनका अभिनन्दन करते हैं। अप्सराएं शुभ महूर्त का गान करते हुए नृत्य करती हैं। उनपर पुष्पवर्षा करती हैं। प्रभु उन्हें आशीर्वाद देते हैं।


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